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दुखी भारत

चकित कर देनेवाली लाखों की संख्या का पता चलता है जो केवल ६ शिलिंग से १० शिलिंग तक वार्षिक या करीब २ सेंट दैविक व्यय से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह सरकारी अनुमान है।

रेवरेंड डाक्टर सन्डरलेंड भारत के अकालों के सम्बन्ध में अपनी सम्मति को पुष्ट करने के लिए निम्नलिखित बातें और अङ्क उपस्थित करते हैं:––

"सच बात तो यह है कि भारतवर्ष की दरिद्रता एक ऐसी वस्तु है जिसकी हम तब तक कल्पना नहीं कर सकते जब तक हम स्वयं उसे अपनी आंखों से देख न लें। ओफ़! मैंने उसे देखा है...... क्या यह कोई आश्चर्य है कि भारतीय कृषक अपनी आवश्यकता के समय के लिए अचाकर नहीं रख सकता।......प्लेग-द्वारा उनका जो सर्वनाश होता है उसका मुख्य कारण उनकी महान् दरिद्रता ही है। इस भयङ्कर महामारी से प्राणों की जो क्षति होती है वह दिल दहला देनेवाली है। १९०१ ई॰ में इससे २,७२,००० मनुष्य मरे; १९०२ ई॰ में ५,००,०००; १९०३ ई॰ में ८,००,०००; और १९०४ ई॰ में १०,००,००० से भी अधिक यह महामारी बिना किसी रोकथाम के अब भी अपना काम कर रही है। अधिक समयों तक भरपेट भोजन ना पा सकने के कारण लोगों की शक्ति बहुत घट गई है। जब तक भारतवर्ष में वर्तमान गरीबी बनी हुई है तब तक प्लेग का दमन करने की आशा नहीं की जा सकती।......भारतवर्ष में अकाल पड़ने का वास्तविक कारण वर्षा का अभाव नहीं है; जनसंख्या का बढ़ जाना भी इसका कारण नहीं है; यह है भारतवासियों की निकृष्ट, वृणित और भयङ्कर दरिद्रता!"

इस सम्बन्ध में हाल में जिन लोगों ने अनुसन्धान किये हैं उनमें श्रीयुत अरनाल्ड लप्टन का नाम लिया जा सकता है। इन्होंने अपनी पुस्तक, हैपी इंडिया में, जिसका कि हम उल्लेख कर चुके हैं इस समस्त विषय को भूसा में से अनाज की तरह निकाल कर रख दिया है। मिस्टर लप्टन ने भारत की राष्ट्रीय आय का लेखा लगाने की चेष्टा की है और वे निम्नलिखित परिणाम पर पहुँचे हैं[१]:––

"जो लोग सीधे ब्रिटिश सरकार के शासन में हैं उनकी––अर्थात्

२४,७०,००,००० भारतवासियों की कृषि और दस्तकारी की––आय जोड़ दी


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ९८।