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दुखी भारत


जातियों और श्रेणियों के उचित और कानूनी स्वत्वों को स्वीकार किया जाय और उनकी रक्षा की गारंटी दी जाय. तथा जिसमें भीतर शान्ति और बाहर शेष संसार के साथ मैत्री का भाव हो। भारतवासी यह चाहते हैं कि उन्हें अपने देश में वही स्थान और वही अधिकार प्राप्त हों जो स्वतंत्र जातियों को अपने देश में प्राप्त रहते हैं। उनकी मांग न इससे कम है न अधिक। यदि यह साम्राज्य के अन्तर्गत प्राप्त हो सकता है तो हमें उससे सम्बन्धविच्छेद करने की इच्छा नहीं है परन्तु यदि साम्राज्य हमें अपने ध्येय पर पहुँचने से रोकता है तो उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने में हमें जरा भी सङ्कोच न होगा। महात्मा गान्धी के शब्दों में, हमारा मूलमन्त्र यह होना चाहिए कि 'यदि सम्भव हो तो साम्राज्य के भीतर यदि आवश्यक हो तो उससे पृथक्।'

"हमारे मार्ग में जो कठिनाइयाँ हैं उनको मैं कम नहीं कहता: वे बहुत हैं। परन्तु उतनी भयङ्कर कोई नहीं हैं जितनी कि एक अकेली साम्राज्यवाद की स्वेच्छाचारिता और खूब धन बटोरने की लालच से उत्पन्न होने वाली कठिनाई। इन्हीं दोनों बातों से श्राज संसार में दुख और अशान्ति की वृद्धि हो रही है। साम्राज्यवाद की प्यास बुझाने के लिए, कच्चे माल पर एकाधिपत्य रखने के लिए, योरप के कारखानों को चलाने के लिए और उनके द्वारा तैयार किया गया माल मनमाने तौर से बेचने के लिए, बड़े बड़े राष्ट्रों को उनकी स्वतंत्रताओं से वञ्चित किया जाता है और साम्राज्यों की रचना होती है।........

"राजनीतिज्ञ लोग 'सभ्यता-प्रचार और गौराङ्ग महाप्रभु के उत्तरदायित्व' का ढोंग रचते हैं और खूब नमक मिर्च लगा कर इन विषयों को उपस्थित करते हैं। परन्तु दक्षिणी अफ्रीका में साम्राज्यवाद के महान नेता सेसिल रोड्स ने इन बातों के खोखलेपन को जितनी अच्छी तरह प्रकट कर दिया था उतनी अच्छी तरह किसी और ने नहीं किया। उसने कहा था-'शुद्ध लोक-सेवा स्वयं अच्छी वस्तु है परन्तु उसके साथ ५ प्रतिशत लाभ भी हो तो वह बहुत अधिक अच्छी है।' साम्राज्यवाद के महान् पुजारी जोसेफ शेम्बरलेन और भी आगे बढ़े। उन्होंने कहा-'साम्राज्य व्यापार है। और हमें जितने प्राहक प्राप्त हुए हैं या प्राप्त होंगे उनमें भारतवर्ष सर्वोत्तम और सबसे अधिक मूल्यवान् है।' योरप की इस लोक-सेवारूपी डकैती का इतिहास कांगो से कैटन तक रक्त और कैश में लिखा हुआ है। सरकार की कड़ी नीति, करोड़ों भूक मनुष्यों के संरक्षण का सृष्टता-पूर्ण दावा और योरप की युद्ध के पूर्व की सङ्गीत-मण्डली को छिपाने के लिए राष्ट्र-संघ के नाम से विख्यात नवाविष्कृत लबादा; ये सब उसी साम्राज्यवाद के भिन्न भिन्न स्वरूप