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दुखी भारत


और कहते हैं कि शरीर के कोमल अङ्गों पर चोट न की जाय। हाँ, आपस्तम्भ ने 'डराने, उपवास कराने, ठंडे पानी से नहलाने और स्कूल से निकाल देने' की भी आज्ञा दी है।[१]

अधीर पाठक पूछेंगे कि शूद्रों के लिए क्या विधान है? रेवरेंड 'की' इसके उत्तर में लिखते हैं कि 'ब्राह्मण की शिक्षा से शूद्रों को सदा दूर रखा जाता था। पर शूद्रों ने अपने बच्चों के शिक्षा के लिए अपनी खास पद्धति का निर्माण कर लिया था। सर्वसाधारण की जिन आवश्यकताओं की पूर्ति ब्राह्मणों के स्कूलों की शिक्षा से नहीं हो सकती थी उनके लिए सर्वप्रिय शिक्षा-प्रणाली का जन्म हुआ[२]'। अपने में बहुत से दोषों के होते हुए भी वर्णाश्रम-धर्म कला-कौशल को उच्च कोटि का बनाये रखने में बड़ा सहायक हुआ था। 'एबे डुबोइस' ने भी इसकी प्रशंसा की थी। 'की' महाशय कहते हैं—'भारतवर्ष में सुन्दर कला और दस्तकारी की ओर शताब्दियों से जन-प्रवृत्ति थी। और भविष्य में इनकी और भी उन्नति होने की आशा है।' प्रत्येक व्यापारी या दूकानदार के बालकों को घर पर ही शिक्षा मिलती थी। प्रायः वे अपने पिता के से ही कार्य करने के लिए शिक्षित किये जाते थे।' 'बालकों के हाथ में वास्तविक वस्तुएँ दी जाती थीं उन्हीं पर प्रयोग करते करते उन्हें अनुभव होता था और वे शिक्षित होते थे। उनकी शिक्षा में स्कूल के कमरों की कृत्रिमता न थी।' अपना गुण अपने पुत्र को सौंपने में पिता को बड़ा आनन्द आता था। 'भारतीय संग्रहालय के नक्क़ाशी के पत्थरों में एक हौदा है जिस पर नाक्क़शी का काम करने के लिए दिल्ली के मुगल बादशाहों ने एक कुटुम्ब को उसकी तीन पीढ़ियों तक नौकर रखा था।' कारीगरी के कई एक कामों के लिए बालकों को एक खास सीमा तक नियमित रूप से ड्राइङ्ग की शिक्षा दी जाती थी। 'भारतवर्ष में दस्तकारी की शिक्षा एक-मात्र व्यापारिक उद्देश से दी जाती थी। और इसलिए वह संकुचित रूप में भी थी।' 'बहुत से कामों में लिखने-पढ़ने के ज्ञान की सीधी आवश्यकता न पड़ती थी इसलिए उन कामों को


  1. पृष्ठ ३५
  2. पृष्ठ ५७ इसके आगे कला-कौशल-सम्बन्धी शिक्षा के जो वाक्य उद्धृत किये गये हैं वे 'की' की पुस्तक के ७८-८० पृष्ठों से लिये गये हैं।