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तीसरा अध्याय
असफल शिक्षा

हम समझते हैं कि ब्रिटिश पदाधिकारियों और ब्रिटिश लेखकों की रिपोर्टों से हमने जो उद्धरण दिये हैं उनसे यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि मिस मेयो के ये आक्षेप, कि ब्रिटिश राज्य होने से पहले हिन्दुओं की कोई शिक्षण-पद्धति नहीं थी और अब भी वे शिक्षा और साक्षरता-प्रचार के समस्त उद्योगों का विरोध करते हैं, पूर्ण रूप से भ्रममूलक हैं। कई एक प्रान्तों में ब्रिटिश का अधिकार होने के समय शिक्षा का जैसा विस्तार था वैसा अब ब्रिटिश शासन के १७५ वर्ष पश्चात् भी नहीं रह गया है। प्राचीन भारतीय शिक्षण-पद्धति यहाँ के वासियों की प्रतिभा और आवश्यकताओं के सर्वथा अनुकूल थी। निःसन्देह ब्रिटिश-कर्मचारियों ने उसका नाश अकारण ही नहीं कर डाला। भारतीय प्राचीनता और संस्कृति के प्रति उनका यह विद्वेष अधिकांश में जान बूझ कर ही हुआ था। ब्रिटिश की शिक्षा-सम्बन्धी नीति के पीछे क्या स्वार्थ काम कर रहा था इसका पता लगाने के लिए, हमें उस नीति के रचयिताओं, अर्थात् गत शताब्दी के अन्तिम वर्षों के ब्रिटिश शासकों की, परीक्षा करनी पड़ेगी।

चार्लस ग्रैन्ट ने 'भारतवासियों की शिक्षा' नामक अपनी पुस्तक में जो १८ वीं शताब्दी के अन्त में प्रकाशित हुई थी लिखा था कि 'शिक्षा-सम्बन्धी नवीन नीति की सफलता में हमारा मङ्गल है, अमङ्गल नहीं'। 'स्वाभाविक अशान्ति को दूर करने के लिए, (हिन्दुओं को अपना अनुयायी बनाने के लिए, अपना आधिपत्य सुरक्षित रखने के लिए)[१] और अपने हित में क्रमशः उनका मूल्य बढ़ाने के लिए हमें अत्यन्त बुद्धिमानी के उपायों से काम लेना होगा।'


  1. चौथा अध्याय। इन उद्धरणों में कोष्ठक में जितने वाक्य आयेंगे सब हमारे होंगे।