पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/४२

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द्वितीय खण्ड।



रीति के अनुसार नित्यक्रिया के अन्तर पूजादि कर इष्टदेव को प्रणाम किया फिर हाथ जोड़कर आकाश की ओर देख बोले 'गुरुदेव! मेरी सुध रखना मैं राजधर्म्म पालन करूँगा, क्षत्री कुलोचित कर्म करूँगा! अपने चरणों का प्रसाद मुझको दीजिये। दुराचारी के उपपत्नी का ध्यान इस चित्त से दूर कीजिये जिस में शरीर त्याग करने पर आप के समीप पहुंचूं मनुष्य को उचित है सो मैं करता हूँ। आप अन्तरयामी हैं मेरे अन्तःकरण में दृष्टि करके देखिये अब मैं तिलोत्तमा के प्रणय की इच्छा नहीं रखता। अब उसके दर्शन की लालसा नहीं रखता केवल भूतपूर्व स्मृति अहर्निशि हृदय को जलाती है। आज अभिलाषा त्याग किया। क्या याद न भूलेगी? गुरुदेव चरण कमल का प्रसाद मुझ को दीजिये नहीं तो यह स्मृति दुःख सहा नहीं जाता।

प्रतिमा का विसर्जन हुआ।

तिलोत्तमा ने भूमि में पड़ी स्वप्न देखा है कि निगिड़ अन्धकार में वह एक तारे की ओर देख रही है किन्तु उसने अपनी ज्योति खींच ली इस घोर आंधी में जिस लता से अपना प्राण बांधा था वह टूट गयी, जिस नौका पर चढ़कर समुद्र पार जाने की आशा थी वह नौका डूब गयी॥

 

ग्यारहवां परिच्छेद।
गृहान्तर।

अपने कहने के अनुसार दूसरे दिन उसमान आकर राजपुत्र के सामने उपस्थित हुआ और बोला!

'युवराज। पत्र का उत्तर भेजियेगा?'