पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४७
द्वितीयखण्ड।


स्त्री मुख पर सौन्दर्य वा अलंकार के गर्व का कोई चिन्ह नहीं दरसता था। हंसी कुछ भी नहीं थी। आनन की कांति भी गम्भीर और स्थिर थी और आँखों से कठोरपन बरसता था।

इसी प्रकार भ्रमण करते २ बिमला परम शोमामय भवन में घुसी और पीछे से द्वार बंद कर दिया। इस महोत्सव के दिन भी उसमें केवल एक सलिन ज्योति दीपक जलता था। एक कोने में एक पलंग पर बिछौने के कोने से मुँह ढांपे एक स्त्री पड़ी थी। बिमला पट्टी के समीप खड़ी होकर मीठे स्वर से बोली 'मैं आई हूँ।'

सोने वाली ने चिहुंक कर मुँह खोला, बिमला को‌‌ चीन्ह कर उठ बैंठी किन्तु कुछ बोली नहीं।

बिमला ने फिर कहा तिलोत्तमा। 'मैं आई हूँ।'

इसपर भी तिलोत्तमा ने कुछ उत्तर नहीं दिया वरन बिमला के मुँह की ओर घूरती रही।

अब वह रूप तिलोत्तमा का नहीं रहा। शरीर दुबला हो गया, मुँह सूख गया, एक मैली लंगोटी लगाये पड़ी थी‌। उङ्गाली में एक छल्ला भी नहीं था केवल प्राचीन अलंकार के चिन्ह जहाँ तहाँ दिखाई देते थे।

बिमला ने फिर कहा 'मैं अपने कहने के अनुसार आई हूँ तु बोलती क्यों नहीं?'

तिलोत्तमा ने कहा 'जो कहना था सो सब कह चुकी अब क्या कहूं?'

बिमला ने तिलोत्तमा की बोली से जाना कि वह रोती है। मस्तक पकड़ कर उठाया और आँसू पोंछने लगी। आँचल सब भींग रहा था और विछौना भी गीला होगया था।

बिमला नें कहा 'इस प्रकार दिन रात रोती रहेगी तो कब तक जीयेगी?'