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पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/७

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दुर्गेशनन्दिनी।



पुस्तक पाठ करनेवाला यवन उसके मुंह की ओर देखने लगा। वह उठकर धीरे २ यवन के समीप जाकर उसके कान में बोली—

'उसमान शीघ्र वैद्य के समीप किसीको भेजो।'

दुर्गजयी उसमान ही गलीचे पर बैठा था। आयेशा की बात सुनकर उठ गया।

आयेशा ने एक रूपे का बर्तन उठा उसमें से जलवत एक वस्तु लेकर राजपुत्र के मुख और मस्तक पर छिड़का।

उसमानखां भी शीघ्रही लौट आया और चिकित्सक को लेता आया। उसने अपनी बुद्धि के अनुसार यत्न कर लहू का बहना बन्द किया और अनेक औषध आयेशा के पास रख उनके सेवन की विधि बताने लगा।

आयेशा ने धीरे से पूछा 'अब क्या बोध होता है?'

भिषक ने कहा-'ज्वर बहुत है।'

वैद्य को जाते देख उसमान ने द्वार पर जाकर उसके कान में कहा 'बचने की आशा है कि नहीं?"

भिषक ने उत्तर दिया "लक्षण तो नहीं है पर ईश्वर की गति जानी नहीं जाती जब फिर कोई विशेष क्लेश हो तो हम को बुला लेना।"

दूसरा परिच्छेद।
पाषाण संयुक्त कुसुम।

उस दिन आयेशा और उसमान बड़ी रात तक जगतसिंह के समीप बैठे थे। कभी उनको चेत होजाता था और कभी मूर्छा आ जाती थी। भिषक भी कई बेर आए और गए