पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/७४

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द्वितीयखण्ड ।



हुए कतलूखां ने कहा 'पिता होन- मैं पापी-ऊंह प्यास "

आयशा ने फिर कुछपिलाया किन्तु फिर गला घुटने लगा।

सांस छोड़ते २ बोला 'दारुण ज्वाला-साध्वी तुम देखना -'

राजपुत्र ने कहा 'क्या?

कतलूखां ने सुन लिया और बोला।

इस क-इसकन्या-सी-पवित्र-स्पर्श-न-देखा नहीं। ~~तुम ऊह । बड़ी ण्यास-प्यास-चले-आयेशा।'

फिर बोल न निकला । अपने जान परिश्रम तो बहुत किया परन्तु सिर झुक गया और कन्या का नाम लेते २ प्राण पयान कर गया।

अट्ठारहवां परिच्छेद ।

बराबरी।

अगतसिंह छूट कर अपने पिता के लइकर में गये और वहां से आकर सन्धि का निषध करा दिया । पठान लोग दिल्लीश्वर के आधीन हुए तथापि उङिस्सा उनके हाथ में रहा, सन्धि का नियम विस्तार पूर्वक लिखने का इस स्थान पर कुछ प्रयोजन नहीं है । मेल होने के पीछे भी कुछ दिन तक दोनों दल के लोग अपने २ स्थान पर बने रहे । ईसाखां ने कतलूखां के पुत्रादि को लेकर उसमान के साथ मानसिंह को 'नज़र' दी । राजा ने भी उनका बड़ा आदर किया और खिलत देकर विदा किया इस प्रकार सन्धि करने और मिला मेंटी करने में कुछ दिन बीत गये।

अन्त को जगतसिंह की सेना के पटने को कूच करने का दिन समीप आया। एक दिन संध्या को युवराज अपने नोकर