पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७४
दुर्गेशनन्दिनी।


उसमान हंसने लगा और बोला 'मैं यह नहीं जानता था कि राजपुत्र सेनापति मरने से डरता है, लड़ो, मैं तुमको मारूंगा छोडूंगा नहीं तुम जीते जी आयेशा को नहीं पा सकते।'

राजपुत्र ने कहा 'मैं आयेशा को नहीं चाहता।'

उसमान तरवार भांजते २ बोला 'तुम आयेशा को नहीं चाहते किन्तु आयेशा तुमको चाहती है । लड़ो, छूटोगे नहीं।

राजकुमार ने असि दूर फेंक कर कहा 'मैं न लडूंगा। तुमने हमारा इतना उपकार किया है मैं तुमसे लड़ नहीं सक्ता।

उसमान ने क्रोध करके राजकुमार के छाती में एक लात मारी और कहा 'जो सिपाही लड़ने से भागता है उसको ऐसे लड़ाते हैं।

फिर राजकुमार से न रहा गया और चट भूमि पर से तरवार को उठा सिंह की भांति कूद कर उसके छाती पर चढ़ बैठे और उसके हाथ से तरवार छीन ली। दहिने हाथ से तरबार उसके गले पर रख बोले 'अब तो साधमिट गयी?'

उसमान ने कहा 'अभी तो दम में दम है।'

राजपुत्र ने कहा 'अब दम निकाल लेने में क्या बाधा है?'

उसमान ने कहा 'फिर निकाल लो नहीं तो मैं तुमको मारने को जीता रहूंगा।

जगतसिंह ने कहा 'रहो कुछ भय नहीं।' मैं तो तुमको मार डालता किन्तु तुमने मेरी प्राण रक्षा की है मैंने भी छोड़ा।'

यह कह दोनों पैरों से उसका दोनों हाथ दबा लिया और एक २ करके उसका सब शस्त्र छीन लिया और फिर उसको छोड़कर बोले 'अव बराबर घर चले जाओ, तुमने मुसलमान होकर राजपुत्र की छाती में लात मारा था इसीलिये तुम्हारी यह दशा की गयी नहीं तो राजपूत कृतघ्न नहीं होते जो अपने