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पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/९

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दुर्गेशनन्दिनी।



में रहे तो मानसिंह को अपनाते कितनी देर है। वह अपने पुत्र के छुड़ाने की लालसा से अवश्य संधि करेगा और अकबरशाह भी ऐसे वीर सेनापति के छुड़ाने की इच्छा करेंगे। और यदि स्वयं जगतसिंह को हमलोग अपने हितसत्कार द्वारा बाधित कर सकें तो वह कृतज्ञता पालन पूर्वक हमारे मन का मेल करा देगा, उसके किये यह होसक्ता है। यदि और कुछ न हो तो मानसिंह अपने पुत्र के छोड़ाने के लिये रूपया बहुत देगा। एक दिन की विजय की अपेक्षा जगतसिंह का जीता रहना विशेष उपकार कारक है।'

उसमान ऊर्ध्व लिखित बातों को सोच बिचार तन मन से राजकुमार के पुनर्जीवन का उद्योग करता था किसी २ का ऐसा भी स्वभाव होता है कि यदि लोग उनको दयावन्त कहें तो लज्जा आती है अतएव बाहर से कठिनता धारण किये रहते हैं। उसमान का भी ऐसा ही स्वभाव देख आयेशा हँस कर बोली 'उसमान! यदि सब का चित्त तुम्हारे ऐसा होता तो फिर धर्म का कुछ काम न था'।

उसमान इधर उधर की बातैं कर बोला 'आयेशा। अब तो मुझ से रहा नहीं जाता, कब तक लव लगाये रहूं?'

आयेशा के मुंह पर गम्भीरता आ गयी। उसमान उसकी ओर देखने लगा। उसने कहा 'उसमान हम तुम भाई बहिन की भांति एक स्थान पर उठते बैठते हैं यदि तुम्हारे मन में कुछ और है तो अब मैं तुम्हारे सामने निकलूंगी भी नहीं। उसमान का मुंह मलीन होगया और बोला।'

'हे करतार! क्या तूने इस कोमल कुसुम शरीर को पाषाण हृदय संयुक्त बनाया है!' और आयेशा को माता के गृह पहुंचाय उदास मन अपने घर को लौट आया