सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८७
द्वितीय खण्ड।


आयेशा ने कहा "बहिन ! इसकी कुछ प्रशंसा करने की आवश्यकता नहीं है ! आज जो रत्न तुमने अपने हृदय में धारण किया है उसकी अपेक्षा यह सब तृण के समान है।' यह बात कहतै २ आयेशा के आंखों में आंसू भर आये किन्तु बड़े कष्ट से उसने सम्भाल लिया और तिलोतमा को कुछ 'मालूम नहीं हुआ।

सम्पूर्ण अलंकार से सुसज्जित करके आयेशा तिलोत्तमा के दोनों हाथधर उसका मुंह देखने लगी। मनमें विचारने लगी "इस सरल प्रेम मूर्ति को देख कर तो बोध होता है कि प्रीतम कभी दुःखी न होंगे। यदि विधना बाम न हो तो मेरी यही कामना है कि इसको लेकर वह सदैव सुख भोग करें।"

तिलोसमा से बोली।

'तिलोत्तमा । मैं जाती है। तुम्हारे स्वामी काम में होंगे उनके पास जाने से काल हरण होगा जगदीश्वर तुम लोगो को चिरजीवी करे मैंने जो रत्न दिया है उसको मङ्ग में धारण करना और मेरे न, अपने साररत्न को हदय में धारण करना।'

अपने साररत्न कहते की बेर आयेशा की कंठ संग रूंघ आया तिलोत्तमा ने देखा कि आयेशा की पलकेैं भीगी हुई थरपरा रही है और महा दुःख प्रकाश पूर्वक कहा 'बहिन रोती क्यों हो इतने में आयेशा के नेत्रों से आंस की धारा चलने लगी । फिर वह एक क्षण नहीं ठहरी और शीघ्रता पूर्वक घर से निकल पालकी पर सवार होगयी।

जब आयेशा अपने घर पर पहुंची रात हो गयी थी। वस्त्र उतार कर खिड़की के सामने खड़ी होकर शरीर को शीमल पवन द्वारा शीतल करने लगी। नील वर्ण गगन मण्डल में फोटियों तारे चमक रहे थे भौर पवन संचारित पूसलवाद