उनके आधीन होगया परन्तु क्षत्रियों का तेज हीन नही हुआ बहुतेरे स्वाधीन भी रहे और आज तक ( यद्यपि मुसल्मानों का राज जाता रहा ) यवनों को समर में प्रचारते रहे और बहुतेरों को प्राजित भी किया। किन्तु बहुतेरे ऐसे टूट गये कि उनको कर देना पड़ा वरन दुष्ट यवन कुल के सन्तुष्टार्थ अपनी कन्या भी उनको देते थे। वे लोग भी इनसे मित्रता और बंधुता का बर्ताव करने लगे और फिर यही लोग उनके सेनाध्यक्ष आदि भी होने लगे। मोगलियों में सब से अकबर बड़ा बुद्धिमान था। उसने विचारा कि इस देश के राज काज के साधन हेतु इसी देश के मनुष्य बहुत उत्तम हैं। अन्य देशी से यह काम भली भांति नहीं हो सकता और युद्ध के काम में तो राजपूतों से बढ़कर कोई है ही नहींं। इसलिये वह सर्वदा इसी देश के आदमियों से काम लेता था और विशेष करके क्षत्रियों से।
जिस समय की चर्चा हम कर रहे हैं, उस समय दूसरे राजपूत अधिकारियों में महाराज मानसिंह सबसे प्रधान थे और वे अकबर के पुत्र सलीम के साले भी थे। जब आज़िमखां और शहबाज़खां से उड़ीसा पराजित नहीं हुआ तो महाराज अकबर ने इन्हीं को बङ्गाल और बिहार का अधिकार देकर भेजा।
९९७ साल में मानसिंह ने पटने में आकर पहिले पहिल तत्सामयिक उपद्रव को शान्त किया और दूसरे वर्ष उड़ीसा के जीतने की इच्छा करके उस ओर चले। मानसिंह ने पहिले पटने में पहुंचकर और वहां रहने की अभिलाषा से बङ्गाल के शासन निमित्त सैयद खां को अपना प्रतिनिधि नियत किया था सैयदखां यह अधिकार पाय उस समय की