इसने बड़ा साहस दिखलाया था। उक्त बालान ने प्रसन्न होकर यह मान्दारणगढ़ उसको पुरस्कार में दिया था क्रमश: इस बीर का वंश बहुत बढ़ा और काल पाकर बंगाधिपति को प्रचार के इस स्थान पर गढ़ निर्माण पूर्वक स्वाधीन होकर रहने लगा। जिस गढ़ का सविस्तर वर्णन हुआ है उस में ९९८ के साल में बीरेन्द्रसिंह नामी जयधरसिंह का एक वंशज रहता था।
वीरेन्द्रसिंह दम्भ और अधीरता के कारण अपने पिता की आज्ञा नहीं मानता था और इसी कारण उनका आपुस में मेल नहीं था। पुत्र के विवाह के निमित्त पिता ने निकटस्थ एक अपने जाति वाले की कन्या ठहराई थी। बेटी वाले को और कोई सन्तान नहीं थी किन्तु कन्या परम सुन्दरी थी। बूढे़ने इस सम्बन्ध को अति उत्तम समझा और यथोचित उद्योग करने लगा। किन्तु बीरेन्द्रसिंह के मन का यह विवाह नहीं था उसने अपनेही ग्राम की एक पति पुत्रहीन दरिद्र स्त्री के कन्या से छिपकर अपना विवाह कर लिया, पिता ने जब यह समाचार सुना बहुत रुष्ट हुआ और बीरेन्द्र को घर से निकाल दिया। उसने अपनी स्त्री को यहीं छोड़ दिया क्योंकि वह गर्भिणी थी और आप सिपाहियों में नौकरी करने की इच्छा कर वहां से चल दिया।
पुत्र के चले जाने से वृद्ध पिता को बड़ा क्लेश हुआ और उसके पता लगाने का यत्न करने लगा परन्तु क्या हो सकता था। तब उसने बहू को बुला कर अपने घर में रक्खा, समय पाकर उसको एक कन्या उत्पन्न हुई। थोड़े दिन के अनन्तर माता इस लड़की की मर गईं और वह अनाथ अपने दादा के यहां बड़ी हुई।