सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[४३]


दिया? और आंखे काढ़ कर पत्तल की ओर देखने लगे।

आसमानी ने कहा "तौ तुमको खाना पड़ेगा।"

दि०| हरे कृष्ण? चौके से उठ आये, कुल्ला किया, अब क्या खायेंगे?

आ०| हां न खाओगे? हमतो अपना जूठा खिलावेंगे और थाली में से एक कवर भात लेकर खा गयी।

ब्राह्मण हक से रह गया।

आधा कवर थाली में डाल कर आसमानी ने कहा 'ले अब खाओ' ब्राह्मण के मुख से शब्द नहीं निकला।

आ०| खाओ सुनते हो कि नहीं, मैं यह न किसी से कहूंगी कि तुमने हमारा जूठा खाया है, कुछ हानि नहीं।

दि०| हां उसमें क्या है।

किन्तु दिग्गज की क्षुधाग्नि क्षण २ बढ़ती जाती थी और मन में कहते थे कि यह दुष्ट आसमानी पृथ्वी में समाय जाती तो मैं यह सब भात खा जाता और पेट की आग बुझाता।

आसमानी चेष्टा से दिग्गज के मनकी बात लख गई और बोली "खाओ न-भला थाली के पास तो बैठो।"

दि०| क्यों फिर क्या होगा।

आ०| हमारा मन। क्या हमारा कहना न करोगे।

दिग्गज ने कहा "अच्छा लेओ बैठता हूं, इसमें कुछ दोष नहीं हैं। तुम्हारी बात रह जायं" और थाली के पास बैठ गए। पेट तो भूख के मारे ऐंठा जाता था और आगे का अन्न मुंह तक नहीं पहुंच सकता था। दिग्गज के आँखों से आँसू चलने लगे।

आसमानी ने कहा "यदि ब्राह्मण शुद्र का जुठा छूले तो