सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[७७]


'अब क्या होगा युवराज? क्या यहां तिलोत्तमा के साथ मरना होगा?' और फिर रोने लगी।

राजपुत्र भी मनमें बहुत पिड़ित हुए और बोले 'मैं तिलोत्तमा को इस दशा में छोड़ कर कहां जाऊं? मैं भी तेरी सखी के संग प्राणत्याग करूंगा।

इसी समय एक भारी शब्द हुआ और अस्त्र की झनकार भी कान में पड़ी बिमला चिल्लाने लगी।

'हा तिलोत्तमा! हा! तेरी क्या दशा हुइ? अब तुझको कैसे बचाऊं?'

तिलोत्तमा ने आंखें खोली, बिमला कहने लगी 'तिलोत्तमा को चेत हुआ। राजकुमार! ए राजकुमार? इससमय तिलोत्तमा को बचाओ।

राजकुमार ने कहा 'इस घर में रहकर कौन रक्षा कर सकता है। यह सम्भव होता तो मैं तिलोत्तमा को बाहर निकाल ले जाता। परन्तु तिलोत्तमा तो चल भी नही सकती। देखो बिमला, पठान सीढ़ी पर चढ़े आते हैं। पहिले मैं बलि होता हूं किन्तु तब भी तुम्हारी रक्षा नहीं होती।'

बिमला ने तुरन्त तिलोत्तमा को गोद में ले लिया और बोली, 'चलिये मैं तिलोत्तमा को ले चलूंगी।'

दोनों कमरे के बाहर आए।

जगतसिंह ने कहा 'हमारे पीछे चली आओ

पठानों ने 'माल' देख वाह वाह पुकारा और यम के दूतों की भांति कूदने लगे। राजपुत्र ने तरवार म्यान से निकाल ली और हन के एक के सिर पर मारी कि पार होगई इतने में एक पठान ने राजपुत्र के गर्दन पर जड़ी, पर ओछी लगी। उसका हाथ पकड़ युवराज ने एक ऐसी दी कि वह