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मुरशिदाबाद

घसीटी बेगम,यहीं रहती थीं। यहां पर बहुत से राजनैतिक खेल हुए हैं। १७५७ ईसवी में यहीं से सिराजुद्दौला ने पलासी की लड़ाई के लिए प्रस्थान किया था। दिवानी की सनद हासिल करने के बाद यहीं क्लाइब ने जमींदारों से नज़रें ली थीं। १७७१-७३ में, जब वार्न हेस्टिंग्ज नव्वाब नाजिम के दरवार में पोलिटिकल रेजिडेन्ट थे तब,आप यहीं रहा करते थे। यहीं पर सर जान शोर भी कुछ दिनों तक रहे थे।

गङ्गा के दूसरे किनारे पर खुशबाग नाम का एक बाग है। उसमें अलवर्दी खां और उसके कुटुम्बियों की कब्रे हैं। सिराजुद्दौला की कब्र भी यहीं पर है।

जाफ़रगञ्ज का मक़बरा महल से कोई डेढ़ मील है। मीरजाफर से लेकर हुमायूं जाह तक-मुरशिदाबाद के नव्वाब नाजिमों-की कब्रें यहीं हैं। यहां कई आदमी कुरान का पारायण करने के लिए नियत हैं। हर तीसरे दिन एक परायण हो जाता है और फिर वह नये सिरे से शुरू किया जाता है।

हीरा मील जाफ़रगञ्ज से थोड़ी ही दूर है। मसनद पर बैठने के पहले यही सिराजुद्दौला ने अपना विलास भवन बनवाया था और यहीं पर वह अनङ्गरङ्ग में मस्त रहता था। पलासी की लड़ाई से लौटकर यहीं से वह,अपनी बेगम,लतीफुन्निसा,को लेकर राजमहल की तरफ भागा था। यहीं क्लाइव ने मीरजाफर की बांह पकड़ कर उसे तख्त मुबारक पर बिठाया था।

मुरशिदाबाद के पास ही कसिम-बाजार है। १६५८ ईसवी में