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पृष्ठ:देवांगना.djvu/२२

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विहार




विक्रमशिला महाविहार की स्थापना पालवंशी राजा धर्मपाल ने नवीं शताब्दी में की थी। धर्मपाल बौद्ध धर्म का अनुयायी था। वह अपने को परम भट्टारक-परम परमेश्वर महाराजाधिराज कहता था। इस महाविहार में छै महाविद्यालय थे जिनमें से प्रत्येक का पृथक्-पृथक् द्वारपण्डित होता था। प्रत्येक महाविद्यालय में 100 आचार्य रहते थे। इस प्रकार विक्रमशिला महाविहार में कुल 648 आचार्य थे। जिनमें अनेक विश्वविश्रुत पण्डित थे। महाविद्यालय का सभा भवन इतना विशाल था कि उसमें 8 हज़ार भिक्षु एक साथ बैठ सकते थे।

विक्रमशिला में बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के अतिरिक्त वेद-दर्शन तथा अन्य ज्ञान- विज्ञान की शिक्षा तो होती ही थी, पर यह विहार वज्रयान का सबसे बड़ा केन्द्र समझा जाता था। यह युग तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोने का था। बौद्ध और पौराणिक दोनों धर्मों में तान्त्रिक महत्त्व बहुत था। इस युग में तन्त्रवाद का जो इतना बड़ा महत्त्व था, उसका श्रेय इसी महाविहार को था।

इस समय यहाँ के प्रधान कुलपति आचार्य वज्रसिद्धि थे, जो वज्रयान में प्रमाण माने जाते थे।

विक्रमशिला में शिक्षा पाए हुए विद्यार्थियों में भी अनेक प्रसिद्ध विद्वान् निकले। रत्नवज्र, रत्नकीर्ति, ज्ञानश्री मित्र, रत्नाकर शान्ति और दीपंकर अतिशा यहीं के छात्र थे। अतिशा को तिब्बत में बौद्धधर्म की पुनः स्थापना के लिए बुलाया गया था, उन्होंने वहाँ वह व्यवस्था और मर्यादा स्थापित की, जो अब तक लामाओं में चली आती है। रत्नकीर्ति अतिशा के गुरु थे। और ज्ञानश्री मित्र अतिशा के उत्तराधिकारी। जब अतिशा तिब्बत चले गए तब ज्ञानश्री मित्र विक्रमशिला विहार के प्रधान आचार्य बने थे। परन्तु इस समय उन्होंने आचार्य वज्रसिद्धि को महासंघ स्थविर धर्मनिष्ठाता बना दिया था और स्वयं गुप्तवास करते थे।

जिस समय हमारा उपन्यास आरम्भ होता है, बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध बीत रहा था। इस समय पालवंश का राजा गोविन्दपाल पूर्वी बिहार पर शासन कर रहा था। विक्रमशिला विहार के कुलपति आचार्य वज्रसिद्धि और नालन्दा के कुलपति सरहभद्र के उत्तराधिकारी महामति थे। सरहभद्र ने सहजयान सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यह नया यान पूर्णतया वाममार्ग ही था और इसमें युग्म मूर्ति की पूजा होती थी। तथा किसी नीच जाति की सुन्दरी युवती की मुद्रा बनाकर साधना की जाती थी। यह नवीन धर्म समूचे पूर्वी