वज्रतारा का मन्दिर
वज्रतारादेवी के मन्दिर के भीतरी आलिन्द में महासंघस्थविर वज्रसिद्धि कुशासन पर बैठे थे। सम्मुख वज्रतारा की स्वर्ण-प्रतिमा थी। प्रतिमा पूरे कद की थी। उसके सिर पर रत्न- जड़ित मुकुट था। हाथ में हीरक दण्ड था। मूर्ति सोने के अठपहलू सिंहासन पर पद्मासन से बैठी थी। मूर्ति के पीछे पाँच कोण का यन्त्र था। जिस पर नामाचार के अंक अंकित थे। मूर्ति सर्वथा दिगम्बर थी।
वज्रसिद्धि के आगे विधान की पुस्तक खुली पड़ी थी। वे उसमें से मन्त्र पढ़ते जाते तथा पूजा-विधि बोलते जाते थे। बारह भिक्षु, भिन्न-भिन्न पात्र हाथ में लिए पूजा-विधि सम्पन्न कर रहे थे। बहुत-से नागरिक भक्ति भाव से करबद्ध पीछे बैठे थे। मन्दिर का घण्टा निरन्तर बज रहा था। आचार्य पूजा-विधि तो कर रहे थे परन्तु उनका मन वहाँ नहीं था। वे बीच-बीच में व्यग्र भाव से इधर-उधर देख लेते थे।
इसी समय महानन्द ने मन्दिर में प्रवेश किया। वह चौकन्ना हो इधर-उधर देखता हुआ, धीरे-धीरे भीतर की ओर अग्रसर हुआ। और संघस्थविर के पीछे वाली खिड़की में जा खड़ा हुआ। किसी का ध्यान उधर नहीं गया। परन्तु वज्रसिद्धि को उसका आभास मिल गया। फिर भी उन्होंने आँख फेरकर उधर देखा नहीं। हाँ, कुछ सन्तोष की भावना उनके चित्त में अवश्य उत्पन्न हो गई।
महानन्द ने देखा—पूजा में सब सफेद फूल काम में लाये जा रहे हैं। उसने अवसर पा एक लाल फूल वज्रसिद्धि के आगे फेंक दिया। महानन्द की ओर किसी की दृष्टि न थी। उसके इस काम को भी किसी ने नहीं देखा। ऐसी ही उसकी मान्यता भी थी। परन्तु वास्तव में एक पुरुष की आँखों से वह ओझल नहीं हो सका। और वह था सुखदास।
सुखदास ने उसकी चाल और रंग-ढंग देखकर ही पहचान लिया था कि वह कोई रहस्यपूर्ण पुरुष है, इस प्रकार अपने को छिपाकर तथा चौकन्ने होकर चलने का दूसरा कारण हो भी क्या सकता था! अत: सुखदास ने छिपकर उसका पीछा किया। और अब यहाँ खम्भे की ओट में खड़ा हो उसकी गतिविधि देखने लगा।
लाल फूल देखते ही आचार्य चौंक उठे। मन्त्रपाठ के स्थान पर उनके मुँह से निकल पड़ा—"अरे! यह तो युद्ध का संकेत है!" उन्होंने नजर बचाकर एक बार महानन्द की ओर देखा। एक कुटिल हास्य उनके ओठों पर खेल गया। उसने फूल के चार टुकड़े कर उत्तर दिशा में फेंक दिए। उनके हिलते हुए ओठों से लोगों ने समझा, यह भी पूजाविधि ही होगी।