पृष्ठ:देवांगना.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

"नहीं तो क्या?"

"किन्तु आचार्य, वह धोखा दे सकता है, मैं भली भाँति जानता हूँ, उसे सद्धर्म पर तनिक भी श्रद्धा नहीं है!"

"यह क्या मैं नहीं जानता? इसी से मैंने उसे चार मास के लिए महातामस में डाल दिया है। तब तक तो काशिराज और उदन्तपुरी के महाराज ही न रहेंगे।"

"परन्तु आचार्य, सेठ यह सुनेगा तो वह महाराज को अवश्य उभारेगा। यह ठीक नहीं हुआ।"

"बहुत ठीक हुआ।"

इसी समय एक भिक्षु ने आकर बद्धांजलि हो आचार्य से कहा—“प्रभु, काशिराज के मन्त्री श्री चरणों के दर्शन की प्रार्थना करते हैं।"

वज्रसिद्धि ने प्रसन्न मुद्रा से महानन्द की ओर देखते हुए कहा—"भद्र महानन्द, तुम महामन्त्री को आदरपूर्वक तीसरे अलिन्द में बैठाओ। और कहो कि आचार्य पाद त्रिपिटक सूत्र का पाठ कर रहे हैं, निवृत्त होते ही दर्शन देंगे।"

महानन्द "जो आज्ञा आचार्य" कहकर चला गया।

वज्रसिद्धि प्रसन्न मुद्रा से कक्ष में टहलते हुए आप ही आप कहने लगा, "बहुत अच्छा हुआ, सब कुछ आप ही आप ठीक होता जा रहा है। यदि काशिराज लिच्छविराज से सन्धि कर ले और सद्धर्मी हो जाय तथा धूत पापेश्वर की सब सम्पत्ति संघ को मिल जाय तो ठीक है, नहीं तो इसका सर्वनाश हो। यदि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जाय तो फिर एक बार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में वज्रयान का साम्राज्य हो जाय।"