महानन्द ने "जो आज्ञा" कह, एक भिक्षु को संकेत किया। भिक्षु ने प्रसाद मन्त्री को अर्पित किया।
प्रसाद लेकर मन्त्री ने कहा—"अनुगृहीत हुआ आचार्य।"
"मन्त्रिवर, आपकी सद्धर्म में ऐसी ही श्रद्धा बनी रहे।"
"आचार्य काशिराज आप ही के अनुग्रह पर निर्भर हैं।"
"तो अमात्यराज, मैं उनकी कल्याण कामना से बाहर नहीं हूँ।"
"ऐसी ही हमारी भावना है, क्या मैं कुछ निवेदन करूँ?"
"क्यों नहीं?"
"क्या लिच्छविराज काशी पर अभियान करना चाहते हैं?"
"ऐसा क्यों कहते हैं मन्त्रिवर?"
"मुझे विश्वस्त सूत्र से पता लगा है।"
"तो उस राजनीति को मैं क्या जानूँ?"
"लिच्छविराज तो आपके अनुगत हैं आचार्य!"
"मन्त्रिवर, मैं केवल अपने संघ का आचार्य हूँ, लिच्छविराज का मन्त्री नहीं।"
"परन्तु आचार्य, वे आपकी बात नहीं टालेंगे।"
"क्या आप यह चाहते हैं कि मैं लिच्छविराज से काशिराज के लिए अनुरोध करूँ?"
"मैं नहीं आचार्य, काशिराज का यह अनुरोध है।"
"क्या काशिराज ने ऐसा कोई लेख आपके द्वारा भेजा है?"
"यह है आचार्य।”
लेख पढ़कर कुछ देर बाद वज्रसिद्धि ने गम्भीर मुद्रा से कहा :
"तो मैं काशिराज का अतिथि बनूँगा।"
"काशिराज अनुगृहीत होंगे आचार्य..."
"मैं यज्ञ में आऊँगा।"
"अनुग्रह हुआ आचार्य।"
"तो महामात्य, एक बात है, लिच्छविराज का आक्रमण रोक दिया जायेगा, पर लिच्छविराज का अनुरोध काशिराज को मानना पड़ेगा।"
"वह क्या?"
"यह मैं अभी कैसे कहूँ?"
"तब?"
"क्या काशिराज मुझ पर निर्भर नहीं है?"
"क्यों नहीं आचार्य?"
"तब उनकी कल्याण-कामना से मैं जैसा ठीक समझूगा करूँगा?"
"ऐसा ही सही आचार्य, काशिराज तो आपके शरण हैं।"
"काशिराज का कल्याण हो।"
मन्त्री ने अभिवादन किया और चले गए। आचार्य वज्रसिद्धि बड़ी देर तक कुछ सोचते रहे। इससे सन्देह नहीं कि सुखदास ने यह सब बातें अक्षरशः सुन लीं।