पृष्ठ:देवांगना.djvu/४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


मुक्त हो गए, अब बाहर जाओ।"

"यह क्या आचार्य, अभी तो प्रायश्चित्त काल पूरा भी नहीं हुआ?"

"मैंने तुम्हें पवित्र वचन से शुद्ध कर दिया। प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं रही।"

"नहीं आचार्य, मैं पूरा प्रायश्चित्त करूँगा।"

"वत्स, तुम्हें मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए।"

"आपकी आज्ञा से धर्म की आज्ञा बढ़कर है।"

"हमीं धर्म को बनाने वाले हैं धर्मानुज, हमारी आज्ञा ही सबसे बढ़कर है।"

"आचार्य, मैंने बड़ा पातक किया है।"

"कौन-सा पातक वत्स?"

"मैंने सुन्दर संसार को त्याग दिया, यौवन का तिरस्कार किया, ऐश्वर्य को ठोकर मारी, उस सौभाग्य को कुचल दिया जो लाखों मनुष्यों में एक पुरुष को मिलता है।"

"शान्तं पापं। यह अधर्म नहीं धर्म किया। तथागत ने भी यही किया था पुत्र।"

"उनके हृदय में त्याग था। वे महापुरुष थे। किन्तु मैं तो एक साधारण जन हूँ। मैं त्यागी नहीं हूँ।"

"संयम और अभ्यास से तुम वैसे बन जाओगे।"

"यह बलात् संयम तो बलात् व्यभिचार से भी अधिक भयानक है!"

"यह तुम्हारे विकृत मस्तिष्क का प्रभाव है, वत्स!"

"आपके इन धर्म सूत्रों में, इन विधानों में, इस पूजा-पाठ के पाखण्ड में, इन आडम्बरों में मुझे तो कहीं भी संयम-शान्ति नहीं दीखती और न धर्म दीखता है। धर्म का एक कण भी नहीं दीखता।"

"पुत्र, सद्धर्म से विद्रोह मत करो, बुरा मत कहो।"

"आचार्य, आप यदि जीवन को स्वाभाविक गति नहीं दे सकते तो संसार को सद्धर्म का सन्देश कैसे दे सकते हैं?"

"पुत्र, अभी तुम इन सब धर्म की जटिल बातों को न समझ सकोगे। मेरी आज्ञा का पालन करो। इस महातामस से बाहर आओ। और स्नान कर पवित्र हो देवी वज्रतारा का पूजन करो, तुम्हें मैंने अपने बारह प्रधान शिष्यों का प्रमुख बनाया है। हम वाराणसी चल रहे हैं।"

आचार्य ने उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वे बाहर निकले। सम्मुख होकर सुखानन्द ने साष्टांग दण्डवत् किया।

आचार्य ने कहा—"अरे भिक्षु!" जा उस धर्मानुज को महा अन्ध तामस के बाहर कर, उसे स्नान करा, शुद्ध वस्त्र दे और देवी के मन्दिर में ले आ।"

सुखदास ने मन की हँसी रोककर कहा—"जो आज्ञा आचार्य।"

उसने तामस में प्रविष्ट होकर कहा—"भैया, जो कुछ करना-धरना हो पीछे करना। अभी इस नरक से बाहर निकलो। और इन पाखण्डियों के भण्डाफोड़ की व्यवस्था करो।"

दिवोदास ने और विरोध नहीं किया। वह सुखदास की बाँह का सहारा ले धीरे-धीरे महातामस से बाहर आया। एक बार फिर सुन्दर संसार से उसका सम्पर्क स्थापित हुआ।