पृष्ठ:देवांगना.djvu/४७

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"अभागिनी देवदासी।"

अब सुखदास भी उठकर वहाँ आ गया। उसने पिछली बात सुनकर कहा :

"नहीं, नहीं, ऐसा न कहो देवी।"

दिवोदास ने कहा—"तुम प्रभात की पहिली किरण के समान उज्ज्वल और पवित्र हो।"

"मैं मिट्टी के ढेले के समान निस्सार और निरर्थक हूँ।"

"अरे, आँखों में आँसू? पितृव्य, यह इतना दुःखी क्यों?"

सुखदास ने कहा—"जो कली अभी खिली भी नहीं, सुगन्ध और पराग अभी फूटा भी नहीं, उसमें कीड़ा लग गया है?"

दिवोदास ने कहा—"बोलो, तुम्हें क्या दु:ख है?"

"मैं अज्ञातकुलशीला अकेली, असहाया, अभागिनी देवदासी हूँ, इसमें मेरा सारा दुःख-सुख है।"

"तो मेरे ये प्राण और शरीर तुम्हारे लिए अर्पित हैं।"

"मैं कृतार्थ हुई, किन्तु अब जाती हूँ।"

"इस तरह न जा सकोगी, तुमने अपने आँसुओं में मुझे बहा दिया है, कहो क्या करने से तुम्हारा दुःख दूर होगा। तुम्हारे दुःख दूर करने में मेरे प्राण भी जाएँ, तो यह मेरा अहोभाग्य होगा।"

सुखदास ने कहा—"अपने दिल की गाँठ खोल दो देवी, भैया बात के बड़े धनी हैं।"

"क्या कहूँ, मेरा भाग्य ही मेरा सबसे बड़ा दुःख है। विधाता ने जब देवदासी होना मेरे ललाट में लिख दिया, तो समझ लो कि सब दुःख मेरे ही लिए सिरजे गए हैं। जिस स्त्री का अपने शरीर और प्राणों पर अधिकार नहीं, जिसकी आत्मा बिक चुकी है, जिसके हृदय पर दासता की मुहर है, प्रतिष्ठा, सतीत्व, पवित्रता जिसके जीवन को छू नहीं सकते, जिसका रूप-यौवन सबके लिए खुला हुआ है, जो दिखाने को देवता के लिए श्रृंगार करती है, परन्तु जिसका श्रृंगार वास्तव में देवदर्शन के लिए नहीं, श्रृंगार को देखने आए हुए लम्पट कुत्तों के रिझाने के लिए हैं, ऐसी अभागिनी देवदासी के लिए अपने पवित्र बहुमूल्य प्राणों को दे डालने का संकल्प न करो भिक्षु।"

उसने चलने को कदम बढ़ाया। परन्तु दिवोदास ने आगे आकर और राह रोककर कहा—"समझ गया, परन्तु ठहरो। मुझे एक बात का उत्तर दो। तुम इस नन्हे-से हृदय में इतना दु:ख लिए फिरती हो, फिर तुम उस दिन किस तरह नृत्य करती हुई उल्लास की मूर्ति बनी हुई थीं?"

"इसके लिए हम विवश हैं, यह हमारी कला है, उसका हमने वर्षों अभ्यास किया है।"

उसने हँसने की चेष्टा की। पर उसकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे।

दिवोदास ने उसका हाथ थामकर दृढ़ स्वर में कहा—"देवी, मैं तुम्हें प्रत्येक मूल्य पर इस दासता से मुक्त करूँगा, मैं तुम्हारे हृदय को आनन्द और उमंगों से भर दूंगा।"

दिवोदास ने उसके बिल्कुल निकट आ स्नेहसिक्त स्वर में कहा—"मैं तुम्हारे जीवन की कली-कली खिला दूंगा।"