"वह अभी तक उसी कन्या के साथ देवदासियों में रहती है। उसका शील और नैपुण्य देख मैंने उसे सब देवदासियों का प्रधान बना दिया है।"
"उसका नाम क्या है?"
"सुनयना।"
"ठीक है। तो आपको यह भेद कैसे मालूम हुआ कि मंजुघोषा लिच्छविराज नृसिंहदेव की पुत्री है?"
"कन्या के कण्ठ में एक गुटिका थी, उसी से। उसमें उसकी जन्म-तिथि तथा वंशपरिचय था। पीछे उस दासी ने भी यह बात स्वीकार कर ली। इसी से उन दोनों के रहने की उत्तम व्यवस्था मैंने कर दी। तथा यह भेद भी मैंने अपने पेट में रखा।"
"तो महात्मन्, मैं आपको अब और एक भेद बताता हूँ कि यह सुनयना दासी वास्तव में लिच्छविराज नृसिंहदेव की राजमहिषी है। और मंजुघोषा की असल जन्मदात्री माता है।"
"अरे! यह कैसी बात?"
"यह सत्य बात है।"
"किन्तु इसका प्रमाण?"
"मैं स्वयं उसे जानता हूँ। इसी से मैंने उसे बुलवाया है। क्या वह आई है?"
"बाहर उपस्थित है।"
"तो उसे बुलवाइये। वही एक व्यक्ति इस समय जीवित है, जो लिच्छविराज के उस गुप्त कोष का ठीक पता जानता है।"
महाप्रभु ने ताली बजाई। माधव कक्ष में आ उपस्थित हुआ। महाप्रभु ने कहा :
"सुनयना दासी को यहाँ ले आओ।"
सुनयना ने आकर पृथ्वी पर गिरकर दोनों महात्माओं को प्रणाम किया। सुनयना की आयु कोई 40 वर्ष की होगी। कभी वह अप्रतिम रूप लावण्यवती रही होगी, इस समय भी रूप ने उसे छोड़ा नहीं था। वह निरवलम्ब थी––परन्तु उसका उज्ज्वल-शुभ्र-प्रशस्त ललाट और बड़ी-बड़ी आँखें उसकी महत्ता का प्रदर्शन कर रही थीं।
सुनयना ने बद्धांजलि होकर कहा—"महाप्रभु ने दासी को किसलिए बुलाया है?"
वज्रसिद्धि ने कुटिल हास्य करके कहा—"लिच्छविराज की महिषी सुकीर्ति देवी, तुम्हारा कल्याण हो! मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ।"
राजमहिषी ने घबराकर आचार्य की ओर देखा, फिर कहा—"आचार्य! मैं अभागिनी सुनयना दासी हूँ।"
वज्रसिद्धि जोर से हँस दिए। उन्होंने कहा—"अभी वज्रसिद्धि की आँखें इतनी कमजोर नहीं हुई हैं। परन्तु महारानी, तुम धन्य हो, तुमने विपत्ति में अपनी पुत्री की खूब रक्षा की।"
रानी ने विनयावनत होकर कहा—"आचार्य, आप यदि सचमुच ही मुझे पहचान गए हैं, तो इस अभागिनी विधवा नारी की प्रतिष्ठा का विचार कीजिए।"
'महारानी, मैं तुम्हें और तुम्हारी कन्या को स्वतन्त्र कराने ही काशी आया हूँ।
महाप्रभु ने ज्यों ही मेरे मुँह से तुम्हारा परिचय सुना––वे तुम्हें स्वतन्त्र करने को तैयार हो