तीन शताब्दियों में उसने भारत और भारत की उत्तर दिशा के बौद्धजगत् को आत्मसात् कर लिया।
इसी समय से वज्रयान उसमें से अंकुरित होने लगा। और आठवीं शताब्दी में चौरासी सिद्धों की परम्परा के प्रादुर्भाव के साथ वज्रयान भारत का प्रमुख धर्म बन गया। बौद्धधर्म का यह अन्तिम रूप था, जो अपने पीछे वाममार्ग को छोड़कर तेरहवीं शताब्दी में तुर्कों की तलवार से छिन्न-भिन्न हो गया।
भारतीय जीवन को बौद्धधर्म ने एक नया प्राण दिया। बौद्ध-संस्कृति भारतीय संस्कृति का एक अभंग और महत्त्वपूर्ण अंग थी। उसने भारतीय-संस्कृति के प्रत्येक अंग को समृद्ध किया। न्याय-दर्शन और व्याकरण में जैसे चोटी के हिन्दू विद्वान् अक्षपाद, वात्स्यायन, वाचस्पति, उदयनाचार्य थे उससे कहीं बढ़े-चढ़े बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर गुप्त और ज्ञानश्री थे। पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि जैसे दिग्गज हिन्दू वैयाकरणों के मुकाबिले में बौद्ध पण्डित काशिकाकार जयादित्य, न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि तथा पाणिनि सूत्रों पर भाषा वृत्ति बनाने वाले पुरुषोत्तमदेव कम न थे। कालिदास के समक्ष अश्वघोष को हीन कवि नहीं माना जा सकता। सिद्ध नागार्जुन तो भारतीय रसायन के एकक्षत्र आचार्य हैं। आरम्भिक हिन्दी का विकास भी बौद्धों ने किया। उनके अपभ्रंश काव्यों की पूरी छाप उत्तर कालीन सन्तों की निर्गुण धारा पर पड़ी।
इतना ही नहीं, कला का विकास भी बौद्धों ने अद्वितीय रूप से किया। साँची, भरहुत, गान्धार, मथुरा, धान्य कण्टक, अजन्ता, अलची-सुभरा की चित्रकला एवं ऐलोरा-अजन्ता, कोली-भाजा के गुहाप्रासाद बौद्धों की अमर देन है। इस प्रकार साहित्य-संस्कृतिमूर्तिकला-चित्रकला और वास्तुकला के विकास में बौद्ध संस्कृति ने भारत को असाधारण देन दी।
आठवीं शताब्दी में जब शंकर और कुमारिल नये हिन्दू धर्म का शिला-रोपण कर रहे थे नालन्दा और विक्रमशिला के बौद्ध विहार परम उत्कर्ष पर थे। नालन्दा में तब शान्तिरक्षित धर्मोत्तर जैसे प्रकाण्ड दार्शनिक विराजमान थे। नवीं शताब्दी में वज्रयान का उत्कट रूप प्रकट हुआ। तब सरहपा, शबरपा, लुहण, कण्हपा जैसे महासिद्धों का अखण्ड प्रताप भारत में चारों ओर छाया हुआ था।
खेद की बात है कि भारत के जीवन में नये प्राणों का संचार कर बौद्धधर्म भारत से लुप्त हो गया। बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में गहड़वारों की राज्यसत्ता की समाप्ति हुई और उसके साथ ही भारतीय स्वतन्त्रता का सूर्य अस्त हुआ। उसी के साथ ही साथ बौद्धधर्म का भी भारत से लोप हो गया।
प्रागैतिहासिक काल का अफगानिस्तान भारत का अंग रहा है। अफगानिस्तान की जड़ें भारतीय संस्कृति से बँधी हुई हैं। वैदिक काल में अफगानिस्तान में कई 'जन' थे, जिनके नाम अब भी अफगानिस्तान के कबीलों में मिलते हैं। बुद्ध के काल में यह भूभाग दारदोशशासानुशास के अधीन था। तब वह गान्धार देश कहलाता था। गान्धार नगर अब भी अफगानिस्तान में है। काबुल के पास की उपत्यका कपिशा विख्यात थी जिसे आज कोह दामन कहते हैं। पाणिनीय काल में वहाँ की अंगूरी शराब कापिशायिनी विख्यात थी। आज