पृष्ठ:देवांगना.djvu/६३

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भला कहीं भुलाया जा सकता है।"

"आपसे बातों में कौन जीत सकता है!"

चन्द्रावली ने घातक कटाक्षपात किया। सेठ ने अधिक रसिकता प्रकट करते हुए कहा-

"इस मुख को देखकर तो गूँगा भी बोल उठे।"

चन्द्रावली ने हँसकर सेठ से कहा—"कहिए, अब कब श्रीमान् मेरे घर पधार रहे हैं?"

"कहो तो अभी-"

"अभी नहीं, कल।"

"अच्छा" सेठ ने हँसकर उत्तर दिया। चन्द्रावली ने गोरख की ओर मुँह करके कहा—"आप भी ब्राह्मण हैं?"

गोरख खुश हो गया। उसने कहा-"सिर केवल ब्राह्मण है।"

चन्द्रावली हास्य बखेरती हुई चली गई। गोरख कुछ देर उसी ओर देखता रहा। फिर उसने कहा—"बहुत सुन्दर है, क्यों सेट्ठि-क्या कहते हो?"

"है तो, परन्तु-"

"परन्तु क्या?"

"कहने योग्य नहीं।'

"कहो, कहो, क्या किसी ने तुम्हारा मन हरण किया है?"

"किया तो है।'

"वह कौन है?"

"है कोई अद्वितीय बाला।"

"वह है कहाँ भला?"

"मन्दिर में ही!"

"मन्दिर में?"

जयमंगल ने आनन्द में विभोर होकर कहा—"है, एक संन्ध्या समय मैं मन्दिर में गया था। आरती नहीं हुई थी। वहाँ सन्नाटा था। महाप्रभु भी नहीं आए थे। मैं भीतर चला गया। सहसा मुझे एक आहट सुनाई दी। देखा, एक फूल-सी सुकुमारी बैठी देवता का फूलों से श्रृंगार कर रही है। हम लोगों की आँखें चार हुईं। तभी से मेरे हृदय में वह बस गई। वाह, क्या सौन्दर्य था! विधाता ने सुन्दरता के कण सारे विश्व से समेटकर उसे रचा होगा। उसकी आँखों में आँसू थे, और उसके ओठ फड़क रहे थे।"

"क्या तुमने उसका नाम पूछा था?"

"जब मैंने उसके निकट जाकर पूछा—"सुन्दरी, तेरा नाम क्या है, और तुझे क्या दुःख है, तो वह बिना उत्तर दिये चली गई। परन्तु मुझे उस मोहिनी के नाम का पता चल गया था-वह मंजुघोषा थी।"

गोरख कुटिलतापूर्वक हँस दिया। उसने कहा—"समझा। जिसे देखो वही मंजुघोषा की रट लगा रहा है। सेट्ठी, उसकी आशा छोड़ दो।"

"यह तो न होगा मित्र, प्राण रहते नहीं होगा। भले ही प्राण भी देना पड़े।"