रहस्योद्घाटन
निरापद स्थान पर आकर सुखदास ने कहा—"अब यहाँ ठहरकर थोड़ा विचार कर लो
भैया।"
परन्तु दिवोदास ने उत्तर दिया—"हमें यहाँ से भगा चलना चाहिए।"
"नहीं, अभी नहीं, देवी सुनयना का उद्धार भी हमें करना है?"
मंजु ने घबराकर पूछा—“क्या वे किसी विपत्ति में है?"
"उन्हें सिद्धेश्वर ने अन्धकूप में डाल दिया है।"
"किसलिए?"
"गुप्त रत्नकोष के बीजक की प्राप्ति के लिए।"
"किन्तु वह तो मेरे पास है।"
"कहाँ पाया?"
"देवी सुनयना ने दिया था।"
"तो तुम उसका सब भेद जानती हो?"
"हाँ, उन्होंने बताया है कि मैं लिच्छवि महाराज श्रीनृसिंह देव की पुत्री हूँ।"
"और देवी सुनयना कौन हैं? यह भी उन्होंने बताया?"
"वे मेरी माता की दासी और मेरी धाय माँ हैं।"
"देवी सुनयना तुम्हारी जन्मदात्री माँ और लिच्छविराज की पट्टराज महिषी सुकीर्ति देवी हैं।"
मंजु ने आश्चर्य और आनन्द से काँपते हुए कहा—"सच?"
"वे तुम्हारे ही कारण अपनी मर्यादा और प्रतिष्ठा को लात मारकर यहाँ पर गर्हित जीवन व्यतीत कर रही हैं।"
मंजु की आँखों में झर-झर मोती झरने लगे। उसके फूल-से होंठों से माँ-माँ की ध्वनि निकली।
दिवोदास ने उसे धैर्य बँधाते हुए कहा—"घबराओ मत! तुम अभी आवास में जाओ, अब सूर्योदय में विलम्ब नहीं है, दिन में वह पापिष्ठ तुम्हारा कुछ अनिष्ट न कर सकेगा। तथा तुम अकेली मत रहना, सबके साथ रहना। हम महारानी का उद्धार करके तथा उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर तुमसे मिलेंगे। फिर कहीं भाग चलने पर विचार होगा।"
"मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ तो?"
"ठीक नहीं होगा। कार्य में बाधा होगी। तुम जाकर स्वाभाविक रूप से अपनी