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बन्दी गृह में


चारों अपराधियों का विचार हो रहा था। उच्च स्वर्ण-पीठ पर आचार्य वज्रसिद्धि, सिद्धेश्वर और काशिराज उपस्थित थे। सम्मुख चारों अपराधी रस्सियों से बँधे खड़े थे। पीछे तलवार लिए सैनिक खड़े थे। दर्शकों की बड़ी भारी भीड़ एकत्र थी।

मंजुघोषा ने करुण स्वर में चिल्लाकर कहा :

"आर्यपुत्र, इनसे कह दो कि हम धर्मतः पति-पत्नी हैं। हमने देवता की साक्षी में विवाह किया है।"

"प्रिये, अधीर मत हो। देखो तो ये भण्ड पाखण्डी क्या निर्णय करते हैं।"

काशिराज ने कहा "भिक्षु, तुम क्या कहना चाहते हो।"

"महाराज, यह मेरी विवाहिता पत्नी है और मैं श्रेष्ठि धनंजय का पुत्र दिवोदास हूँ। मेरी यह पत्नी लिच्छवि राजनन्दिनि मंजुघोषा है।"

वज्रसिद्धि ने कहा—"शातं पापं, तूने मुझसे प्रव्रज्या ली है, तू ऐसा कहकर भिक्षु धर्म से च्युत होता है।"

मंजु ने कहा—"प्रियतम, इनसे कह दो कि मैं तुम्हारे भावी पुत्र की माता हूँ, जो मेरे उदर में पोषण पा रहा है।"

सिद्धेश्वर-तू देवार्पित देवादासी है। क्या तूने ऐसा पातक किया है? इससे तो देवाधिष्ठान ही कलंकित हो गया।

मंजु-कलंकित किया मैंने या तुम जैसे धर्म ढोंगियों ने, जो जंगली पशु की भाँति खून के प्यासे हैं। तुम गाय की खाल ओढ़कर धर्म के ठेकेदार बने बैठे हो। धर्म की आड़ में आखेट करने वाले पेशेवर अपराधी हो, क्या सब खोलकर कह दूँ?

सिद्धेश्वर––महाराज, ये धर्मापराधी हैं। इनका विचार धर्मानुमोदित होना चाहिए, राजनियमानुसार नहीं। आप इसमें विक्षेप मत कीजिए, मैं इस दासी का प्रायश्चित्त विधान करूँगा।

फिर उसने सैनिकों से कहा—"अरे सैनिको, इस दासी को अभी ले जाओ, मैं इसके पाप के प्रायश्चित्त की समुचित व्यवस्था करूँगा।"

दिवोदास ने क्रोध से पैर पटककर कहा—"कदापि नहीं महाराज, मैं आपको सावधान करता हूँ कि लिच्छविराज नन्दिनी का यदि बाल भी बाँका हो गया तो आपके राज्य का खण्ड-खण्ड हो जायेगा।"

काशिराज-युवक, तुम बड़े उद्धत्त प्रतीत होते हो, काशीराज की मर्यादा को यदि