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पृष्ठ:देवांगना.djvu/८८

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"तो तुम दोनों को मुक्त करता हूँ, कार्य करो।"

"किन्तु आचार्य, केवल मुक्ति ही नहीं। स्वर्ण भी चाहिए।"

"स्वर्ण भी ले भद्र, पर उस दासी को निकाल ले चल।"

"यह कौन-सी बड़ी बात है। कह दूँगा, मैं उस भिक्षु का सन्देशवाहक हूँ, उसी ने तुझे बुलाया है। हँसती-खेलती चली आएगी। उसने मुझे उसके साथ देखा भी है।"

"इसके बाद?"

"इसके बाद जैसा आचार्य चाहें।"

"तो भद्र, तू चेष्टा कर।"

"आचार्य, मुझे इस मूर्ख धर्मानुज से भी मिलते रहने की अनुमति दी जाय।"

"किसलिए?”

"उसे बहका-फुसलाकर एक पत्र उस दासी के नाम लिखा सकूँ तो कार्य जल्द सिद्ध होगा।"

"तो तुझे स्वतन्त्रता है।"

"आचार्य, फिर तो काम सिद्ध हुआ रखा है।" वह सिर हिलाता हुआ वृद्ध चरवाहे के साथ एक ओर को रवाना हो गया।