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पृष्ठ:देवांगना.djvu/९२

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"कहो माँ?"

"सुन न सकोगे।"

"कहो-कहो।"

"उसने अपने प्राण दे दिए।"

"प्राण दे दिए?" दिवोदास ने पागल की भाँति चीत्कार किया।

"हाँ, पुत्र, हम बन्दीगृह से मुक्त होकर भागे जा रहे थे। मार्ग ही में उसने एक वृक्ष के नीचे पुत्र को जन्म दिया, और फिर मुझसे एक अनुरोध करके वह विदा हुई।"

"क्या अनुरोध था माँ।"

"यही, कि यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो मेरे पुत्र को उन तक पहुँचा देना।"

"तो मेरा पुत्र?"

"वह मैंने खो दिया।"

"खो दिया?"

"राह में मैं भूख और प्यास से जर्जर हो सो गई। जब आँख खुली तो शिशु न था, कौन जाने उसे कोई वनपशु उठा ले गया था..." सुनयना आगे कुछ न कहकर फूट-फूटकर रो उठी।

"मेरे पुत्र को तुमने खो दिया माँ, और उसने प्राण दे दिए!! खूब हुआ।" दिवोदास अट्टहास करके हँसने लगा। "हा, हा, हा, प्राण दे दिए, खो दिया।" उसने फिर अट्टहास किया और काष्ठ के कुन्दे की भाँति अचेत होकर भूमि पर गिर गया।

इसी समय प्रहरी ने भीतर आकर कहा—"बस, अब समय हो गया। बाहर आओ।" देवी सुनयना संज्ञाहीन-सी बाहर आईं और एक वृक्ष के नीचे भूमि पर पड़ गई।