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पृष्ठ:देवांगना.djvu/९४

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कहा—"आचार्य वज्रसिद्धि क्या तुम मंजु का सन्देश लाए हो? क्या वह आ रही है?"

"भिक्षु, तुम पागल हो गए हो।"

"पागल, प्रेम का पागल, मैं पागल हो गया हूँ!"

(कठोर वाणी से) “मेरे साथ आओ।"

"क्या तुम मुझे मंजु के पास ले जा रहे हो?"

"आओ।"

वज्रसिद्धि ने उसे अपने पीछे आने का संकेत किया। और चल दिया। दिवोदास भी पीछे-पीछे चल दिया। वह वज्रतारा के मन्दिर में जा पहुँचे।

वज्रसिद्धि ने वज्रतारा की प्रतिमा के आगे पहुँच, दिवोदास की ओर कड़ी दृष्टि से देखा और कहा—"भिक्षु, वज्रतारा को प्रणाम करो।"

दिवोदास ने प्रतिमा में भी मंजु की वही मूर्ति देखी और कहा—"प्यारी, तुम आ गई? आओ। मैं नहीं आ सका। इससे क्या तुम नाराज हो?" वह दौड़कर मूर्ति से लिपट गया।

"सुनो! सुनो!!"

"सब सुन रहा हूँ। वह कुछ कह रही है। वह कुछ कहना चाहती है।" वह ध्यान से फिर प्रतिमा को देखने लगा। उसे प्रतीत हुआ, मंजु कुछ संकेत कर रही है, दिवोदास ने उधर हाथ फैला दिए।

वज्रसिद्धि ने दिवोदास को झकझोरकर कहा—"सुनो, तुम्हें वज्रतारा की मूर्ति बनानी होगी। हमें मालूम हुआ है, तुम कुशल चित्रकार हो गए हो।"

दिवोदास ने भाव निमग्न-सा होकर कहा—"मैं अभी प्यारी की मूर्ति बनाता हूँ।"

उसने झट क्षण-भर में गेरू से दीवार पर मंजु की ठीक सूरत बना दी। और फिर रो रोकर कहने लगा—"क्षमा करो, मंजु, प्रिये, क्षमा करो।"

वज्रसिद्धि ने क्रुद्ध होकर कहा—"तुम्हें वज्रतारा की मूर्ति बनानी होगी। इसके लिए दो मास तक तुम्हें एकान्त में रहना होगा।"

उन्होंने एक भिक्षु से कहा—"गोपेश्वर, तुम इसको सब व्यवस्था समझाकर, सब प्रबन्ध कर दो।" इतना कह आचार्य चले गए।