पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१५३

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देव-सुधा
१४३
 

देव-सुधा १४३ नेह लगाय निहोरे करावत नाहक नाह कहावत जैसे , साथ के सेंकत हाथ जरे घर कौन बुझावै मिले सब तेसे; वाहि न चूँघट की घट को सुधि अंग अनंग जरै पजरै-से, क्योंकनग है करतू तिन के जिनकी करतूतिन के फल ऐसे ॥२२६।। सखी नायक के विषय में उपालंभ प्रकट करती हुई स्वकीया नायिका को शिक्षा देती है। निहोरे = विनय । घट की = शरीर की । पजरै – झरना। रावरे रूम लला ललचानी ये जानी न काहू बिकानि औ' ऐसी, हैं सत-हीन सताई ततौ तुम संगति ते उतरी उत तैसी ; न्याव निवेरो न हो यह नेह को जानत हो तुमहूँ हम जैसी , देखिबेहीकोभरौसिसकी तिनतेरिमको चरचाकही कैसी।।२३०॥ ___ पहले दो पद नायक से कहे गए हैं, और अंतिम दो नायिका से । हे लला ! ये तुम्हारे रूप से ललचाकर ऐसी बिकी हैं कि कोई यह भेद भी नहीं जानता । जो तुमने इधर सताया ( प्रेम की कमी से ),

  • तू ( नायिका ) तिनके ( नायक के । कर ( हाथ ) क्यों न

गहै ( क्यों नहीं पकड़ती), जिनकी करतूतिन के ( जिनके कर्मों के) फल ऐसे हैं। तू स्वामी से प्रेम लगा इस प्रकार विनती कराती है, मानो उनका तुझ पर कोई अधिकार ही नहीं, अथच वह तेरे स्वामी निष्कारण कहलाते हैं। तेरे साथ के लोग ऐसे हैं, मानो घर जलने पर बुझाने के स्थान पर तापते हैं । तेरे पति को तेरे घूघट तथा अपने शरीर की भी याद नहीं है, और कामदेव से उसके अंग झरने के समान जल रहे हैं (प्रयोजन यह है कि आग ऐसी प्रचंड है कि झरना तक जल रहा है)। अश्रु-बाहुल्य से झरने का कथन और भी उचित है।