पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१५९

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देव-सुधा
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देव-सुधा इंदीबर-नैनी इंदु-मुखी सुधा-बिंदु-हास, इंदिरा-सी सुंदरि गबिंद-चित-चाह-सी; नेननि उनैसी। लाज सैननि सुनैसी काज, चैननि चनैसी नाह सोहैं कहूँ ना हसी$ । प्रीति भीति प्रगट प्रतोति रीति गुपित, दिपति पति दीपति छिपति छबि माह सी ; आगे-आगे आनन अनूप को उज्यारो रूप, पाछे-पाछे प्यारो लग्यो डोल परछाह-सी ॥ २४१ ।। स्वकीयात्व की मुख्यता है। सोहैं = सामने । सैननि सुनैसी काज = संकेतों से ही काम समझ लेनेवाली । दिपति पति दीपति = पति के प्रकाश से स्वयं प्रकाशित होती है । छबि माह = छवि में । प्रानपती के प्रभात पयान प्रभाकर कोटि हुतो प्रतिकूल-सो, रै हैं क्यों प्रान प्रलै पहिले दिन दूसरो दौस दसा दुग्व-मूल-सो; नेह रच्यो बिरहागि तच्यौ प्रिय-प्रेम पच्यौ पजरै तन तूल-सो, सासनि दूखि उसासनि रूवि गयो मुख सूखि गुलाब के फूल-सो। प्रवत्स्यत्यतिका नायिका का वर्णन है । दूखि = दूषि; दोष लगाकर । सबेरे प्राणेश्वर का चलना है, सो करोड़ सूर्य खिलाफ हो गए, अर्थात् इतना संताप हुआ, जितना करोड़ सूर्यों की शत्रु ता से होता । + ॐ कमल । + घिरी।

  • चुनकर एकत्र करे।

$ पति के सामने कभी हँसी भी नहीं । ++