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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१६१

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देव-सुधा
 

आवन सुन्यौ है मनभावन को भावती ने , आँखिन अनंद-आँसू ढरकि-ढरकि उठे ; देव हग दोऊ दौरि जात द्वार-देहरी लौं , केहरी-सी साँसै खरो खरकि-खरकि उठे। टहले करति टहलें न हाथ-पाँय, रंग- ___ महलै निहारि तनो तरकि-तरकि उठे ; सरकि-सरकि सारी, दकि-दरकि आँगी , औचक उचौहैं कुच फरकि-फरकि उठे ।।२४५ ।। भावती = प्रिया । खरी = तीक्ष्ण । खरकि-खरकि = गले से आवाज़ निकलना (श्वासोच्छवास ): यह 'खड़ाका'-शब्द से बना है। टहलें करति टहलें न हाथ-पाँय = गृह-काज करने में हाथ-पैर स्तब्ध हो जाते हैं, अर्थात् मिलन की उमंग से गृह-काज में जी नहीं लगता। औचक = अकस्मात् । उचौहैं = उभरे हुए। धाई खोरि-खोरि ते बधाई पिय प्रावन की, मुनि-सुनि कोरि-कोरि भावनि भरति है; मोनि-मोरि बदन निहारति बिहार-भूमि, घोरि-घोरि आनँदघरी-सी उघरति है। देव कर जोरि-जोरि बंदत सुरन गुरु- लोगनि के लोरि-लोरि पायन परति है; तोरि-तोरि माल पूरै मोतिन की चौक, निवठ्ठावरि को छोरि छोरि भूषन धरति है।।२४६।। आगत्पतिका नायिका का वर्णन है । वीप्सा की बहार है।