देव-सुधा १५६ लीजिए लाल उढ़ाय जरी पट क जिए जू जिय जो अभिलाखौ , प्यारे हमैं तुम्हें अंतर पारत हार उतारि इतै धरि राखौ ॥२४६ इस छंद में गणिका का वर्णन तो है ही, पर प्रौढ़ा खंडिता का भी अर्थ निकल सकता है । हे दिन-भावते ( दिन में, न कि रात में मिलनेवाले ), श्राज बहुत ही मिले। भुज-भूषण वास्तव में न थे, वरन् अन्य नायिका के भुज-भूषण आलिंगन के कारण नायक के भुजों में गड़कर अंकित थे, सो नायिका उनका इशारा करती हुई उनके पाने की प्रार्थना करके व्यंग्य से कोप दिखलाती है। अन्य नायिका का जरी पट पीत पट से भ्रम-वश बदल पाया था, जिसका इशारा है । हार भी वास्तविक नहीं है, वरन् अन्यत्र के आलिंगन से उपटा हुआ है। गणिका-वर्णन । भावते = हे प्यारे ! भेट = उपहार। भुज- भूषण = बजुल्ला श्रादि भुजाओं पर पहनने के भूषण । आजु गई हुती कुजन लौ बरसे उत बुंद घने घन घोरत , देव क है हरि भीजत देखि अचानक आइ गए चित चोरत ; पोटि भटू तट ओट बटो के लपेटि पटी सों कटी पटु छोरत , चौगुनो रंग चढ़ो चित मैं चुनरी के चुचात लला के निचोरत । गुप्ता नायिका का वर्णन । भटू = स्त्री ( संबोधन-प्रयोग, प्रेम से संबोधित करना)। पोटि = पुटया (पुचकार ) कर । श्रोट बटो = वट- वृक्ष की आड़ में । पटी = पट, वस्त्र । पटु = वस्त्र (पटूका )। --- - घोरते ( गरमते ) हुए घन (मेघ ) । घोरना देशस्थ शब्द है, जिसका अर्थ सोने में गले के बोलने का है।
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