पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/७९

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देव-सुधा
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करि कोरि कला उलटें पल पल ही पल ज्यौं मृग बागरि के, बहु ताको बिलास बढ़े चित-बाँस पै देव सरूप उजागरि के* गति बंक निशंक हो नाच करें गुर डोरि गहे गुन-आगरि के, तब नेह लग्यो नटनागर सों अब नैन भए नटनागरि के॥१०॥ नायिका के नेत्रों का नट से रूपक बाँधा गया है। बागरि = जाल । गुर = वह साधन अथवा क्रिया, जिससे कोई काम तुरंत हो जाय। उमगत आवत सुधा-जल-जलधि पल, घरी उघरत मुख अमिय मयूख सो; देव दुहूँ बस मिलि रूप अधिकायो, धु मे । दधि दूधहि मिलायो रस ऊख सोई। & उस उजियाले रूपवाली के नेत्रों का चित्त-रूपी बाँस पर नट की भाँति कला करने से उसका विलास बहुत बढ़ता है। ____ + उस गुणागरी के नैन गुर-रूपी डोरि पकड़े हुए, टेढ़ी चाल से, निडर नाच करते हैं।

  • एक पल भी घूघट से मुख-चंद्र की किरण खुलते ही उसी घरी

( समय ) अमृत के जल का समुद्र उमड़ता पाता है। समुद्र पूरे चंद्र के उदय होने से उमड़ता है, किंतु यहाँ सुधा-समुद्र मयूख (किरण ) से ही उमड़ पड़ता है ।। $ दुहूँ बैस = बाल्यावस्था और युवावस्था, इन दोनो का मिलान । वय-संधि । मधु तारुण्य व्यंजक है, तथा दधि-दूध बाल्या- वस्था की शुद्धता प्रकट करते हैं । दधि-दूध में शहद तथा ऊख का- सा रस मिला हुआ हैं।