मन १७१ समता के लिये देवजी ने उसे चुना, यह भी उसके लिये कम सौभाग्य की बात नहीं है। सर्व-गुण-संपञ्च कोई भी नहीं है। वैसे ही माणिक्य में भी कठोरता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । क्या देवजी मन की कोमलता भूल सकते थे ? क्या कोमल-कांत-पदावली में प्रवीण देव मन की इस महत्ता को यों ही छोड़ देते ? देवजी एकांगी-कथन के समर्थक नहीं जान पड़ते हैं। वे प्रत्येक बात को कई प्रकार से कहते हैं । मन माणिक्य होकर मोम की भी सदृशता पाता है- दूरि धरयो दीपक झिलमिलात, झीनो तेज, सज के समीप छहरान्यो तम तोम-सो । लाल के अधर बाल-अधरन लागि, जागि उठी मदनागि, पघिलान्यो मन मोम-सो । मदनाग्नि से मन-मोम का पिघलना कितना स्वाभाविक है। मोम को फिर भी कुछ कठोर जानकर देवी मन को माखने-सा कोमल कहते हैं। यथा- . माखन-सो मन, दूध-सो जोबन, है दधि तैं अधिकै उर ईठी। . फिर भी, नवनीत-कोमलता से भी, संतुष्ट न होकर देवजी मन की घृत से उपमा देते हैं- काम-धाम घी-ज्यों पघिलात घनस्याम-मन, क्यों सहै समीप "देव” दीपति-दुपहरी ? मन की ऐसी द्रव-दशा दिखाकर देवजी उसके हलकेपन और अयथार्थता की ओर झुकते हैं । सो "कै नद-संग तरंगन मैं मन फेन भयो, गहि श्रावत नाही" द्वारा मन की 'फेन' से उपमा दी जाती है। मन की जल के झाग से कैसी सुंदर समता दिखलाई गई है। फेन और नद-संग होने से देवजी ने पाठकों को नदी के कूल का स्मरण दिला दिया। यहाँ पर देवजी ने एक मन-रूप मंदिर बना PM
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