१९१ देव-विहारी तथा दास १६१ दीसी मैं गुलाब-जल सीसी मैं मगहि सूखै , सीसियौ पपिलि परै अंचल सो दागि। दास (११) नित संसौ-हंसौ बचतु मनौ सु यह अनुमानि ; विरह-अगिनि लपट न सकै झपटि न मीचु-सिचान । विहारी ऊँचे अवास बिलास करै, असुवान को सागर कै चहुँ फेरे; ताहू ते दूरिलौं अंग की ज्वाल, कराल रहे निसि बास घनेरे; दास लहै बरु क्यों अवकास, उसास रहै नभ ओर अभेरे; है कुसलात इती यहि बीच, जुमीचु न आवन पावत नेरे। दास (१२) कुच गिरि चढ़ि अति थकित है, चली डीठि मुख चाड़ ; फिरि न टरी परियै रही, परी चिबुक की गाड़। विहारी बार अँध्यारनि मैं भटक्यो हो, निकारयों मैं नीठि सुबुद्धिन सों धरि ; बूड़त आनन-पानिप-भोर पटोर की आँड सों तीर लग्यो तिरि ; मो मन बावरो योही हुत्यो, अथरा-मधु पानकै मूढ़ छक्यो फिरि । 'दास' कहौ अब कैसे कड़े निज,चाय सो ठोढ़ी के गाड़ परयो गिरि । दास बाल-बेलि सूखी सुखद, यह रूखी रुख-घाम ; फेरि डहडही कीजिए, सरम साँचि घनस्याम । विहारी
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