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देव-विहारी तथा दास
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दीसी मैं गुलाब-जल सीसी मैं मगहि सूखै ,
सीसियौ पपिलि परै अंचल सो दागि।
दास
(११)
नित संसौ-हंसौ बचतु मनौ सु यह अनुमानि ;
विरह-अगिनि लपट न सकै झपटि न मीचु-सिचान ।
विहारी
ऊँचे अवास बिलास करै, असुवान को सागर कै चहुँ फेरे;
ताहू ते दूरिलौं अंग की ज्वाल, कराल रहे निसि बास घनेरे;
दास लहै बरु क्यों अवकास, उसास रहै नभ ओर अभेरे;
है कुसलात इती यहि बीच, जुमीचु न आवन पावत नेरे।
दास
(१२)
कुच गिरि चढ़ि अति थकित है, चली डीठि मुख चाड़ ;
फिरि न टरी परियै रही, परी चिबुक की गाड़।
विहारी
बार अँध्यारनि मैं भटक्यो हो, निकारयों मैं नीठि सुबुद्धिन सों धरि ;
बूड़त आनन-पानिप-भोर पटोर की आँड सों तीर लग्यो तिरि ;
मो मन बावरो योही हुत्यो, अथरा-मधु पानकै मूढ़ छक्यो फिरि ।
'दास' कहौ अब कैसे कड़े निज,चाय सो ठोढ़ी के गाड़ परयो गिरि ।
दास
बाल-बेलि सूखी सुखद, यह रूखी रुख-घाम ;
फेरि डहडही कीजिए, सरम साँचि घनस्याम ।
विहारी
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१८३
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