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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२५१

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परिशिष्ट २५६ लंकार है । मुख में गुण देखकर ओलापन स्थापित किया गया है । उपमा में यहाँ गोराई और बिलाने के दो धर्म है। बिलानेवाले गुण में दुःप्रबंध-दूषण लगने का भय था, क्योंकि ओला बिलकुल लोप हो जाता है, किंतु मुख नहीं। कवि ने इसी कारण बिलकुल बिला जाना न कहकर केवल "बिलानो जात" कहा है। बीर, बिरही, विथा, सकोच, गुरु सोच, मृगलोचनि, गोरो-गोरो, ओरो, भाय, मुसकाय, भरि-भरि, ढरि श्रादि शब्दों से वृत्यानुप्रास का चमत्कार प्रकट होता है। भरि-भरि, गोरो-गारो, सिसिकि-सिसिकि, बड़े-बड़े और हाय-हाय वीप्सित पद हैं। वीप्सा का यहाँ अच्छा चमत्कार है। इस छंद में भंगार-रस पूर्ण है । “नेकु हँसि छुयो गात" में रति स्थायी होता है । "नेकु जु प्रिय जन देखि सुनि श्रान भाव चित होय, अति कोबिद पति कबिन के सुमति कहत रति सोय।" प्रिया को देखकर नायक के चित्त में दर्शन-भव आनंद से बढ़कर क्रीड़ा- संबंधी भाव उत्पन्न हुआ। इस भाव ने इतनी वृद्धि पाई कि उसने हँसकर पत्नी का गात छुप्रा । सो यह भाव केवल आकर चला नहीं गया, बरन् ठहरा । यह था रति का भाव । सो हमें स्थायी रति का भाव प्राप्त हुआ । यही श्रृंगार-रस का मूल है। रस के लिये आलं- बन की आवश्यकता है। यहाँ पति और पत्नी रस के बालंबन हैं। रस जगाने के लिये उद्दीपन का कथन हो सकता है, परंतु वह अनिवार्य नहीं है। इस छंद में कवि ने उद्दीपन नहीं कहा है। नायक का हुसकर गात छूना और मुसकराना संयोग-शृंगार के अनुभाव हैं तथा नायिका का रिसाना मानचेष्टा होने से वियोग- शृंगार का अनुभाव है। सिसिकि-सिसिकि निशि खोना तथा रोकर प्रात पाना संचारी नहीं हैं, क्योंकि ये समुद्र-तरंगों की भाँति नहीं उठे हैं, बरन् बहुत देर स्थिर रहे हैं। हाय-हाय करके