परिशिष्ट २६७ किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, उनके आधार पर यह कहा जाता है कि वह स्वरूप के बड़े ही सुंदर तथा मिष्टभाषी थे, पर उनको अपने मानापमान का विशेष ध्यान रहता था। कहते हैं, ये जो जामा पहनते थे, वह बड़ा ही विशाल और घेरदार रहता था और राज- दरबारों में जाते समय कई सेवक उसको भूमि में घिसलने से बचाने के लिये उठाए रहते थे। प्रसिद्ध है कि उनको सरस्वती सिद्ध थी- उनके मुख से जो बात निकल जाती थी, वह प्रायः वैसी ही हो जाती थी। कहते हैं, एक बार वे भरतपुर-नरेश से मिलने गए। उस समय किले का निर्माण हो रहा था । महाराज ने इनसे कहा-कविजी कुछ कहिए । इन्होंने कहा-महाराज, इस समय सरस्वती कुछ कहने की आज्ञा नहीं देती। महाराज ने आग्रह न किया। इसके कुछ समय बाद इन्होंने महाराज को कुछ छंद पढ़कर सुनाए । इनमें से एक इस आशय का भी था कि डीग के किले में मनुष्यों की खोपडियाँ लुढ़कती फिरेंगी। इस स्पष्ट कथन के कारण देवजी को तादृश अर्थ- लाभ नहीं हुआ, पर कहा जाता है कि बाद को यह भविष्यवाणी बिलकुल ठीक उतरी। देवजी ५२ अथवा ७२ ग्रंथों के रचयिता कहे जाते हैं। इन्होंने काव्य-शास्त्र के सारे अंगों पर प्रकाश डाला है । इनकी कविता रस- प्रधान है। इन्हें अपनी रचना में अलंकार लाने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, बरन् वे आप-ही-आप पाते जाते हैं। इनकी भाषा टकसाली है और इन्होंने उचित नियमों के अनुसार नवीन शब्द भी निर्माण किए हैं। प्राचीन कवि अलंकारों को ही सबसे अधिक महत्त्व देते थे, इनकी कविता में भाव भाषा द्वारा नियंत्रित किया जाता था । लक्ष्य कला की परिपूर्णता थी, भाव का संपूर्ण विकास नहीं। भाव को बँधकर चलना पड़ता था । कला के नियम उसे जिस ओर ले जाते थे, वह उसी ओर जाने को विवश था। APome
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