पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७८ दव और विहारी सहिहाँ तपन-ताप पति के प्रताप, रघु- बीर को बिरह बीर मोसो न सह्या परे । खेद है, हम यहाँ देवजी की भाषा पर लगाए गए आक्षेपों पर विशेष विचार करने में असमर्थ हैं, केवल उदाहरण के लिये दो-एक बातें लिख दी हैं। यहाँ पर यह कह देना अनुचित न होगा कि छापे की अशुद्धियों एवं लेखक की असावधानी से देवजी की भाषा में प्रकट में जो कई त्रुटियाँ समझ पड़ती हैं, उनके ज़िम्मेदार देवजी कदापि नहीं हैं। देवजी की भाषा विशुद्ध त्रजभाषा है। वह बड़ी ही श्रुति-मधुर है। उसमें मीलित वर्ण एवं रेफ-संयुक्त अक्षर कम हैं । टवर्ग का प्रयोग भा उन्होंने कम किया है। प्रांतीय भाषाओं-बुंदेलखंडी, अवधी, राजपूतानी श्रादि-के शब्दों का व्यवहार भी उन्होंने ओर कवियों की अपेक्षा न्यून मात्रा में किया है। उनकी भाषा में अशिष्ट प्रयोगों ( Slang erpies-ions ) का एक प्रकार से अभाव है। कुछ विद्वानों की राय है कि जिस भाषा में लोच हो, जिसमें काव्यांगों एवं अलंकारों को स्वयं श्राश्रय मिलता जाय, वही उत्तम भाषा है। हमारी राय में देवजी की भाषा में ये दोनों ही गुण मौजूद हैं। विहारीलाल और देव दोनों की भाषाओं में कुछ लोग देवजी की भाषा को अच्छा मानते हैं। हमारा भी यही मत है। जिन कारणों से हमने यह मत स्थिर किया है, उनमें से कुछ ये हैं- देव और विहारी की प्रात कविता को देखते हुए देव की रचना कम-से-कम दसगुनी अधिक है । इस बात को ध्यान में रखकर यदि हम दोनों कवियों के भाषा-संबंधी अनौचित्यों पर विचार करें, तो जो औसत निकलेगा, वह हमारे मत का समर्थन करेगा। सतसई में कम-से-कम १५० पंक्तियाँ ऐसी हैं, जिनमें टवर्ग की भरमार है ।