पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/३००

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३०८ देव और विहारी तेरे ही अधीन अधिकार तीन लोक को, सु दीन भयो क्यों फिरै मलीन घाट-बाट हैं; तो मैं जो उठत बोलि, ताहि क्यों न मिलै डोलि , खोलिए, हिए मै दिए कपट-कपाट हैं। हृदय के कपट-कपाट खुल जाने के बाद अपने आपमें जो बोल उठता है, उससे सम्मिलन हो जाता है । इस सम्मिलन के बाद फिर और क्या चाहिए ? 'सोऽहं' और 'श्रहं ब्रह्म भी तो यही है । फिर तो हमी ब्रज हैं, ब्रज-स्थित वृंदावन भी हमीं हैं, श्याम-वर्ण भानु-तनया की विलोल तरंग-मालाएँ भी हमी में हैं। चारों ओर विस्तृत सघन वन एवं अलि-माला से गुंजायमान विविध कुंजों का प्रादुभीव भी हमीं में होता है। वीणा की मधुर झंकार से परिपूर्ण, रास-विलास-वैभव से युक्त वंशी-वट के निकट नट-नागर का नृत्य भी हमी में होता है। इस नृत्य के अवसर पर संगीत-ध्वनि के साथ-साथ गोपियों की चूड़ियों की मृदु झंकार भी हमी में विद्यमान पाई जाती है। वाह ! कितना रमणीय परिवर्तन है ! हो ही ब्रज, बृदावन मोही में बसत सदा , जमुना-तरग स्याम-रंग अवलीन की; चहूँ और सुंदर, सघन बन देखियत , कुंजनि मैं सुनियत गुंजनि अलीन की । बंसी-बट-तट नट-नागर नटतु मोमैं , रास के विलास की मधुर धुनि बीन की; भरि रही भनक, बनक ताल-तानन की , तनक-तनक तामैं भनक चुरीन की। वेदांत के इतने उच्च और सच्चे तत्व से परिचित होते हुए भी देवजी ने संसार की क्षण-भंगुरता पर विकलता-सूचक आँसू गिराए