पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/३४

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भूमिका

अवसर पर विद्वानों में मत-भेद हुआ ही करता है और ऐकमत्य स्थापित होना एक प्रकार से असंभव ही हो जाता है।

भाषा का विचार भी समालोचना पर बहुत प्रभाव डालता है। बहुत लोगों को सरल भाषा पसंद आती है और बहुतों को लिष्ट ही में आनंद मिलता है । समालोचना में देखना यह चाहिए कि जिस पथ का कवि या लेखक ने अवलंबन लिया है, उससे वह कहाँ तक भ्रष्ट हुआ है अथवा उसका उसने कहाँ तक पालन किया है। बहुत-से समालोचक गूढ़ बातें निकालने ही की उधेड़बुन में लगे रहते हैं । जिन गुणों से सब परिचित हों, उनके प्रति क्षुद्र दृष्टिपात करते हुए ये लोग नए-नए गणों ही के ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न करते है। आज कल की समालोचनाओं में वर्णन-शैली पर आक्षेपों की भरमार रहती है । अपनी विवेकवती बुद्धि के प्रभाव से ये समालोचक सोने को सूबर और सूबर को सोना सिद्ध करने में कुछ भी कसर नहीं उठा रखते । यदि किसी ग्रंथकार के ग्रंथों को कोई भी नहीं पढता, तो ये समालोचक उनकी ऐसी प्रशंसा करेंगे मानो काव्य के सभी अंगों से वे ग्रंथ पूर्ण हैं । उनको महाकवि देव को अपेक्षा आधुनिक किसी खड़ी बोलीवाले की भद्दी कविता उत्तम जंचेगी , केशवदास की राम चंद्रिका की अपेक्षा किसी विद्यार्थी की तुकबंदी में उन्हें विशेष काव्य-सामग्री प्राप्त होगी; आधुनिक समस्या-पूर्तियों के सामने विहारीलाल के दोहे उन्हें फीके जान पड़ेंगे। निदान इस प्रकार के समालोचकों के कारण हमारी भाषा में वास्तविक समालोचना का नाम बदनाम हो रहा है। यह कितनी लज्जा का विषय है कि हमारी भाषा में इस समय समालोचना-संबंधी कोई भी पत्र प्रकाशित नहीं होता है ? .

  • हर्ष की बात है कि अब 'समालोचक' नाम का एक त्रैमासिक पत्र निकलने लगा है।