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दो बहनें

सम्मान-रक्षा के लिये भी उसकी सतर्कता उतनी ही सतेज थी। एक दृष्टान्त याद आ रहा है।

एक बार शशांक और उसकी स्त्री घूमने के लिये नैनीताल गए थे। पहले से ही उनका कम्पार्टमेंट सारे रास्ते के लिये रिज़र्व था। जंक्शन पर आकर गाड़ी बदलकर शशांक कुछ खाने-पीने की सामग्री लाने के लिये बाहर गया, लौटकर देखता है कि वर्दीधारी एक दुर्जनमूर्ति उन्हें बेदख़ल करने को उद्यत है। स्टेशनमास्टर ने आकर एक जगद्विख्यात जेनेरल का नाम लेकर बताया कि कम्पार्टमेंट असल में उसके लिये ही था, गलती से दूसरा नाम चिपका दिया गया था। शशांक ने आँखें फाड़कर देखा और जब संभ्रमपूर्वक दूसरे कम्पार्टमेंट में जाने की तैयारी करने लगा, तो शर्मिला गाड़ी में चढ़कर दरवाज़ा रोककर खड़ी हो गई; गरजकर बोली, 'देखती हूँ कौन आकर मुझे उतारता है, बुला लाओ अपने जेनेरल को!' शशांक उस समय तक सरकारी नौकर था, ऊपरवाले अफ़सर के जातिभाई से बचबचकर ख़तरे से दूर रहकर चलने का ही यह आदी था। हड़बड़ाकर बोला—'अरे भई, झमेला बढ़ाने से क्या फ़ायदा, गाड़ी में और भी तो जगह है।' शर्मिला ने इस बात पर कान ही