स्त्री-पुरुष क्षत्री, जो हीरान की धरती पहचानते १०५ कह्यो, जो - तुम उदास होइ क्यों जात हो ? कछक दिन मेरे इहां रहो तो आछौ है । जो माल निकसेगो तामें तें आधो वांटि दउंगो । तव वैष्णव ने कही, जो-एक वेर तो दगा पाइ है । अव कसे मानों ? तव व्यौपारी ने कह्यो, जो-चारि भले आदमीन सों कहवाय देखें । तव वा वैष्णव के मन में आई, जो-दोइ चारि महिना और देखि लडं। खाली हाथ कहा घर जाऊं ? तव चारि मनुष्यन ते कहि के वैष्णव वा व्यापारी पास रह्यो। तव व्यौपारी ने धरती हाकिम पास ते मोल.लीनी। सो वैष्णव ने जा ठौर वताई ता ठौर खुदवायो। सो पहिले तें अधिक माल निकस्यो। तब महिना चारि भए। तव वैष्णव ने व्यापारी सों कह्यो, जो-अब तो हम को घर छोरे बोहोत दिन भए है तातें अब तो घर जॉइंगे । सो तुम आधी माल कयो है सो देउ । तव व्यापारी ने वैष्णव तें कहो. जो - यह माल तुम्हारे भाग्य तें निकस्यो है । जो चाहो सो सब लेउ । परि तुम कछक दिन मेरे पास रहो। तब वेष्णव ने कही. जो- अव तो हम घर जाँइगे । हमारे बांट की द्रव्य है सो देउ । अधिकी हमकों नाहीं चहियत है। तव वा व्यापारीने आधो माल वांटिदियो । और प्रसन्नता सों वैष्णव को विदा कियो। और वह पहिले की व्यौपारी हतो. ताने दगा कियो हतो । सो ताके घर में आगिलागी । सो सगरो माल घरकी वस्तु सहित सब भस्म होइ गई। तब वा व्यापारी ने जान्यो, जो-मने वा वैष्णव को कछ न दियो तासों मेरे घर में आगि लागी । सगरो माल गया । तब मन में विचारी. जो-वैष्णव फिरि के आवे तो विनती करिआ। और इहां वैष्णव ने विवारि
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