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पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१२२

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स्त्री-पुरुष, क्षत्री, जो हीरानकी धरती पहचानते १११ पधराय के वीस मनुष्य मारग के लिये संग ल्याए। और इन ग्यारह जनेन कों संग ले श्रीगोकुल चले । तब वेष्णव ने श्री- गुसांईजी के दरसन किये । भेट धरी । और श्रीगुसांईजी सों सब समाचार कहे । जो - महाराज ! ग्यारह ठग आपु की सरनि आए हैं । तब ठगन ने श्रीगुसांईजी को दंडवत् करि विनती करी। जो - महाराज ! हमने जनम तें दुष्ट कर्म वोहोत किये हैं। अव या वेष्णव के संग ते तुम्हारे चरनकमल को दरसन भयो है। अब आपु कृपा करि के नाम सुनावो। तब उन ठगन सों श्रीगुसांईजी कही, जो- तुमकों दया नाहीं है। मनुष्य मारत हो । माल लूटि लेत हो । तातें तुम को नाम कैसे सुनावें ? तब उन ठगन ने विनती करी, जो- महाराज! अव तो हमने दुष्ट कर्म छोरयो। अब न करेंगे। जो-कोई की चाकरी न मिलगी तो खेती करि के निर्वाह करेंगे । परि हम काहू को अब दुःख न देईंगे । तब श्रीगुसांईजी ने उनको नाम सुनायो । पाछे वे सब उहां तें उठि गए । तव वैष्णव ने श्रीगुसांईजी को हीरा की हार पहराए । तव श्रीगुमाईजी वैष्णव सों कहे, जो - यह हार तो श्रीनाथजी लायक है। तव वैष्णव ने कही. जो- हमारे तो सर्वस्व धनी आपु हो। सो यह मुनि के श्रीगुसांईजी बोहोत प्रसन्न भए । जो-वेप्णव को ऐसोई चाहिए। पाछे महिना एक लों वैष्णव श्रीगोकुल में रह्यो। सो सब बालक बह-बेटी सवन को वस्त्र आभरन पहराए । पाठे श्रीगुसांईजी सों घर जाइये की विनती करी। तब श्रीगुसांईजी अपनो प्रसादी उपरंना उड़ायो। बोहोत प्रीति सो विदा किये। तब उह बी सहित श्रीठाकुरजी कों पधराय श्रीगोकुल तें चल्यो। सो कछुक दिन में उह वैष्णव