पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१२४

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एक ब्रजवासी, जाकों श्रीगुसांईजीने परे कयो ११३ कृपा करि श्रीठाकुरजी पधराय दीजिए तो हों सेवा करों। तव श्रीगुसांईजी वा वेष्णव को कृपा करि श्रीमदनमोहनजी की स्वरूप पधराय दिये। सो वह वैष्णव श्रीठाकुरजी को ले अपने डेरा पै आयो । तव वा वैष्णव के मन में यह आई, जो-श्री- गुसांईजी मोकों श्रीठाकुरजी को तो पधराय दिये। परि इन को नाम तो कछु कह्यो नाहीं। तातें नाम विना हा श्रीठाकुरजी कों कैसें जानगो सो वह फेरि श्रीगुसांईजी के पास आइ विनती कियो, जो-महाराज ! मेरे ठाकुर को नाम कहा है ? तव श्रीगुसांईजी हास्य-विनोद पूर्वक कहें, जो - श्रीमदन- मोहनजी । सो ता समे यह ब्रजवासी हू उहां ठाढ़ी हुतो । सो याने इह वात सुनी। तव यह जान्यो, जो-श्रीगुसांईजी सवन के ठाकुर के नाम कहत हैं। सो हों हू अपने ठाकुर को नाम पूछों । पाठें उनकी सेवा करों । तव व्रजवासी विनती कियो, जो महाराज ! मेरे ठाकुर को नाम कहा हे ? सो ता समे श्रीगु- सांईजी वा वैष्णव सों बातें कर रहे हते. सो सुन्यो नाही। तब वह ब्रजवासी गादी पै चढन लाग्यो । सो श्रीगुसांईजी ने वाको हाथ पकरि के कह्यो, जो-परे । तव ब्रजवासी ने मन में विचारयो, जो - सव वैष्णवन को सेवा पधराय देत हैं। सो तसें ही मोको परे ठाकुर दियो। सो उहां ते ब्रजवासी भंडारो पास आयो । सो भंडारी सों कह्यो. जो-आज मोकी दोय पेटिया दीजियो । तव भंडारी ने कन्यो, जो - आज दोय पेटियान को कहा करेगो ? तब ब्रजवासी ने भंडारी सों कह्यो. जो- आज मोकों श्रीगुसांईजी ने पर दियो है । सो एक पेटिया तो मेरो और एक पेटिया उनकी । तब