एक चोर, दिल्ली को १५१ शार्ता प्रसंग-१ सो श्रीगुसांईजी एक समै श्रीगोकुलजी ते दिल्ही पधारे। तहां वैष्णवन की भेट वोहोत आई । और एक वैष्णव अपनी वहू के गहना वस्त्र ल्याय कै श्रीगुसांईजी सों कह्यो, जो- महा- राजाधिराज ! मैं आप के संग श्रीगोकुलजी चलि कै तहां वास करूंगो। आप यह गांठि धरो और लिवाय ले चलो। तव श्रीगुसांईजी यह वैष्णव सों कहे, जो-धरि जाउ । तव वह वैष्णव धरि गयो। पाठें रात्रि को एक चोर आयो। सो सगरी भेंट को द्रव्य, कपरा, वासन, सब वांधि दूसरे के हाथ पठायो । ता पाछे धरोहर की गांठि उठाई। तब वह गांठि कों पकरि कै श्रीगुसांईजी कहे, जो - यह पराई धरोहर है । तातें वह धरोहर बारो हम पर दोष बुद्धि करेगो । तातें हमारे गहना यह न्यारे धरे हैं सो ले जा। तब वह चोर छोरि के गयो । पाछे दूसरे दिन वह सगरी वस्तु ले गयो सो सब वह चोर अपने घर ते ले और कछ अपनी ओर तें भेंट ले आय कै श्रीगुसांईज़ी पास विनती करि कह्यो, जो - यह सव आप को माल है सो आप रखवाइए। , पाठे विनती कीनी, जो- महाराज ! मैं चोर हूं। आप की सरनि आयो हूं। तव श्रीगुसांईजी ने कही, जो - चोर कों तो हम सेवक न करेंगे । तव चोर ने विनती कीनी, जो- महाराज ! आप जैसें आज्ञा करो तैसेंई करूंगो। परि मोकों कृपा करि कै सरनि लीजिए। आप तो ईस्वर हो । आप की दयालता को पार नाहीं है. । तव श्रीगुसांईजी ने वासों आंज्ञा करी..जो-तू चोरी तो छोरि सकत नाहीं।.परि.तू दया
पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१६८
दिखावट