पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१९३

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१७६ दोसौ वावन चैष्णवन की वार्ता अव श्रीगुसांईजी की सेवकिनी एफ क्षघानी हती, सो आगरे में रहती, तिनकी वार्ता कौ भाव कहत है- भावप्रकाश--ये राजस भक्त हैं । लीला में ये 'बजांगना' हैं । सो राति दिन गृह के कार्य में आसक्त रहति हैं । सो जब प्रभु यन तें व्रज को आवत हैं तव इन को प्रभुन के दरसन होत हैं । तब यह विह्वल व्हे जाति हैं। ता पाछे फेरि गृह-कारज में आसक्त रहति हैं। ये 'माधुरी' तें प्रगटी हैं, तातें उन के भावरूप हैं। ये आगरे में एक क्षत्री के घर जन्मी । सो ये वरस आठ की भई तव याको व्याह भयो । सो धनी रोगी मिल्यो। सो जनम सगरो इन की सेवा करिवे में वीत्यो । पाछे ये बरस पैंतीस की भई तव याकौ धनी मरयो । तब सब जाति के लोग लुगाई भेलें भए । तब यह क्षत्रानी बोहोत रूदन करन लागी- सो जाति के सब वैष्णव हते । तिन कही, जो - वाई ! जो - कछ होनहार हतो सो भयो। अव रोइवे तें कहा होइगो ? तातें तू वैष्णव होई भगवद् सेवा करि । तो तोकों क्लेस न होईगो । तब यह क्षत्रानी कहे, जो - वैष्णव कैसे होउं ? सो तुम मोकों वतावो । तव उन कयो, जो - यहां कछक दिन में श्रीगुसांईजी पधारेंगे । तव हम तोसों कहेंगे । तव तृ उन के सरनि जैयो। और सेवक व्है स्वरूप सेवा पधराइयो । तव वाने कही, जो - तुम मोकों श्रीगुसांईजी पधारे तब कहियो, मैं उन की सेवक होउंगी । ता पाछे केतेक दिन में श्रीगुसांईजी श्रीनाथ- जीद्वार तें आगरा पधारे । तव जाति की लुगाइन कह्यो, जो - बाई ! श्रीगुसांईजी पधारे हैं । तातें तेरी इच्छा होई तो उनकी सरनि होऊ। तब वह क्षत्रानी श्री- गुसांईजी के पास आइ विनती कीनी, जो - महाराज ! मोकों सेवक करिए । तव श्रीगुसांईजी वाकों कृपा करि नाम सुनाए । पाछे दूसरे दिन समर्पन कराए । वार्ता प्रमग-१ सो वा क्षत्रानीने श्रीगुसांईजी पास नाम-समर्पन करि कै बिनती श्रीगुसांईजी सों करी, जो-महाराज ! मेरो सेवा कौ मनोरथ है । सो स्वरूप-सेवा कृपा करि कै आप मोकों पधराइ दीजे । तब श्रीगुसांईजी वा क्षत्रानी के माथे एक श्रीलालजी कौ स्वरूप पधराय सब सेवा कौ प्रकार नित्य कौ तथा उत्सव को बताइ दिये । सो वह क्षत्रानी श्रीलालजी की सेवा करती। परंतु वह क्षत्रानी कौ मन लौकिक में बोहोत ही रहतो । सबेरो