पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१९७

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१८० दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता साष्टांग दंडवत् करि विनती किये, जो - महाराजाधिराज ! आज्ञा हों। तो अब हम अपने देस घर को जांइ । तव श्री- गुसांईजी उन सों यह आज्ञा किये, जो-कछ दिन श्रीगोकुल को सुख और हू लेहु । तब वे और हु कछु दिन श्रीगोकुल में रहे । सो सातो स्वरूपन की झांकी और श्रीवल्लभकुल की झांकी करे । श्रीगुसांईजी के श्रीमुखकी कथा श्रवन करे । पाछे एक कहे, जो-महाराज! आप की कृपा तेंवड़े ई सुख देखे । वोहोत ही सुख की प्राप्ति भई । नाहीं तो हम सारिखे महापतित दुष्टन को यह सुख की प्रारब्ध कहां हुती ? सो अव आप आज्ञा तो हम अपने देस को जांइ। तब श्रीगुसांईजी उन भीलन सो कहे, जो- बोहोत आछो। पाछे वे दोऊ भील श्रीगुसांईजी को बोहोत भेंट किये। तव श्रीगुसांईजी आप उनकों प्रसाद दे उपरेना दोइ प्रसादी उदाय कै विदा किये । उन ऊपर श्रीगु- सांईजी बड़ी ही कृपा किये । सो वे दोऊ भील श्रीगोकुल तें श्रीगुसांईजी पास ते विदा होइ कै अपने देस घरको चले । सो मारग में एक ब्राह्मन वैष्णव के घर उत्सव हतो। तहां ये दोऊ भील तलाव पर उतरे हते। सो वह ब्राह्मन वैष्णव इन के तिलक कंठी देखि दोऊन कों तलाव पर ते महाप्रसाद लेन कों बुलावन आयो। तब इन दोऊन वा ब्राह्मन वैष्णव सों कह्यो, जो हम तो काहू के हाथ को लेत नाहीं। तब वा ब्राह्मन वैष्णवने इन की जाति पूछी। सो इनने वा ब्राह्मन वैष्णव को अपनी जाति बताई । तब वह ब्राह्मन वैष्णव पिछोरी फेरि कै नाच्यो। तब रसोई छोरि कै सब वैष्णव ब्राह्मन आय उन दोऊ भीलन कों ले गए। पाछे उन भीलन को कह्यो सबननें, जो-हम हू श्रीगुसांईजी के