पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२१५

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१९८ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता तीर कौ सो घाव भयो है । सो जानी नाहीं जाय । तव राजा पटुका उतारि के देखें तो तीर कौ घाव जान्यो । तव राजाने कही, यह चोर कोई आयो तिन ने मारयो । सो अव यह गाम छोरि कै श्रीगोकुल जाँइ तो आछो । परंतु श्रीठाकुरजी की आज्ञा होई तो जायो जॉय । तो श्रीगोकुल जाँय सगरे द्रव्य को त्याग करि एक झांपी में प्रभु को पधराय के विरक्त होइ कै रहूं । मानसी सेवा करूं । जामें कोई चोर न आवे, काहू सों बोलनो न परें । यह राजकाज में वोहोत प्रतिबंध है। यह विचारि करि कै रात्रि को राजा सोयो । तव श्रीठाकुरजी रात्रि को जताए, जो-राजा ! अव तू मोकों पधराय कै श्री- गोकुल ले चलि । अब तेरी तनुजा वित्तजा सेवा सव होइ चुकी है। व्यसन पर्यंत सिद्ध भयो है । सो अब तू एकांत में रहि कै मानसी सेवा करियो। यह सुनि कै आसकरन वोहोत प्रसन्न होइ के प्रभु को दंडवत् करी। पाछे प्रातःकाल उठि कै. भगवद- सेवा करी। राजभोग आति करी । पाछे संपुट में श्रीठाकुरजी कों पधराय गुंजा चंद्रिका कौ सिंगार वेनु-वेत्र, झारी, इतनो लिये, और सब दीवान सों कहे, जो-संगरो द्रव्य है मंदिर को सो श्रीगुसांईजी के इहां पठाईयो । पाछे दोऊ भीतरियान को बुलाय कै आसकरन ने कही, अब तुम श्रीगोकुल जाऊ तुमने बोहोत सेवा करी । पाछे एक एक हजार रुपैया दोऊ 'जनेन को आस- करन ने दे कै बिदा किये । पाछे आसकरन के एक भतीजा बरस बीस को हतो ताकों आसकरन ने राज दीनो। दीवान भलो मनुष्य हतो । सो दीवान कों राज कौ कामकाज सोपि कै अकेले आसकरन एक तुंबा, 'एक ठाकुरजी की झांपी,